बढता साम्प्रदायिकता का जहर

लेखक: डाॅ. सत्यनारायण सिंह,आई.ए.एस.(आर.)


महात्मा गांधी ने धर्म निरपेक्षता को ‘‘सर्व धर्म समभाव’’ के रूप में परिभाषित किया है। गांधी के अनुसार ‘‘धर्म केवल वैयक्तिक शुद्धता का साधन नही है बल्कि सामाजिक एकता का भी प्रभावशाली माध्यम है।’’ महात्मा गांधी धार्मिक पक्षपात का विरोध करने वाले व्यक्ति थे तथा कभी भी धर्म को नैतिकता से अलग नहीं मानते थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू धर्म को नीति के रूप में मानते थे और उन्होंने धर्म को राज्य से अलग रखने की अवधारणा को अपनाया। सरदार पटेल व डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे नेता धर्म निरपेक्षता को वैयक्तिकता का तकाजा मानते थे।

स्वतंत्रता आन्दोलन व उसके बाद धर्म निरपेक्षतावाद, मानववाद, समाजवाद व जनतंत्र को नरेन्द्र देव, पंडित नेहरू, डा. अम्बेडकर, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, श्रीपद अमृतराव डांगे आदि सभी महान मानववादियों ने मजबूत किया। 1950 में संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्ष शब्द को अनुच्छेद 252 में उल्लेखित किया था परन्तु श्रीमती गांधी ने 1975 में 42 वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में गणतंत्र के बाद ‘‘धर्म निरपेक्ष व समाजवाद’’ शब्दों को जोड़ा। संशोधन के समय उन्होंने संसद में कहा था कि ‘‘कुछ निहीत स्वार्थी तत्व जनहित के विरोध में अपने स्वार्थो को आगे बढ़ाने की कोशीश कर रहे है, इसलिए संविधान की प्रस्तावना में ही यह संशोधन लाया गया है।’’  
हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने कहा था ‘‘हिन्द का मतलब हिन्दू ही नहीं है, स्वराज का मतलब हिन्दुओं की हुकूमत से नहीं बल्कि विश्वस्तर पर सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था से है जिससे इंसान स्वयं अपने भीतर ऐसे विजय रथ को उभारने में समर्थ हो।’’ इसे ही गांधी जी ने रामराज कहा था।
1958 में फ्रांसिसी समाजवादी बुद्धिजीवि आन्द्रे माला ने प्रधानमंत्री नेहरू से पूछा कि ‘‘प्रधानमंत्री होने पर सबसे बड़ी चुनौती क्या लगी?’’ नेहरू ने बेहिचक जबाब दिया कि ‘‘सबसे बड़ी चुनौती न्यायसंगत राजतंत्र की स्थापना करना।’’ उसके बाद थोड़ा रूककर उन्होंने कहा कि ‘‘शायद एक धार्मिक देश में धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना करना भी उतनी ही बड़ी चुनौती है।’’
आज भारत दस्तावेजों में बेसक धर्म निरपेक्ष राज्य है। सभी नागरिकों को संविधान द्वारा सुरक्षा प्रदान की गई है मगर सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर देखें तो धर्म निरपेक्षता अभी भी एक आकर्षक विचार है तो कभी-कभी विचित्र रहस्य। भारत में धर्मनिरपेक्षता सामाजिक व धार्मिक आधार पर बंटी हुई है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि ‘‘हिन्दू समाज को गौरवान्वित बनाना होगा लेकिन गलत तरीकों और दूसरे धर्मो से जूझने व टक्कर से नहीं बल्कि पूरी जनसंख्या का मनोबल बढ़ाने से होगा।’’ स्वामी विवेकानन्द ने 1893 में शिकागो में हिन्दू सभ्यता और विभिन्न धर्मो के बीच शांति का बिगुल बजाया था और कहा था यदि हिंसा प्रेम एवं शांति का विनाश करती है तो हिंसा व आतंक को भी केवल प्रेम और भाईचारे से समाप्त किया जा सकता है। विभिन्न धर्मावलम्बियों को अपने अहं को त्यागना होगा। हिन्दू होना इस्लाम या इसाईयत से टक्कर से नहीं है।
सावरकर व गोलवारकर की हिन्दूवादी विचारधारा द्वारा हिन्दूु विचारधारा का संगठन गठित किया गया। जैसे-जैसे हिन्दूवादी विचारधारा और संगठन फैला रहा है। गांधीवादी रामराज की हार होती जा रही है। ऐतिहासिक संस्कृति, मजहबी दांवों और सियासी तिकड़मों के चलते ऐसी सांप्रदायिक विचारधारा पनप रही है जो भारत को खुरच रही है और आमतौर पर शांतिप्रिय लोगों में असहिष्णुता का जहर फैल रहा है।
अल्पसंख्यक समुदाय भी उग्रवादी नेताओं व हिन्दुओं को आरोपित करने वाले नेताओं के हाथों, कठपूतली बनने की भूल कर रहा है। अल्पसंख्यक समुदाय को यह समझना होगा कि वे उस संस्कृति व विरासत से नाता नहीं तोड़ सकते जो इस देश की जड़ें है। सामाजिक समरसता के आगे बुनियादी नियमों में अल्पसंख्यकवाद को भी अलग से राष्ट्रीय स्वरूप लेने की इजाजत नहीं हो सकती।
देश की सहिष्णुता व सद्भावना को चुनौती दी जा रही है।एक नया रूप ऊभर आया है जिसे धार्मिक कट्टरता कहा जाता है। इस विचारधारा में दक्षिणपंथी लोग यह भूल रहे है कि बहुमत से सरकार तो चलाई जा सकती है पर देश नहीं चलाया जा सकता। धर्म निरपेक्ष भारत के निर्माण का सपना बिखर सा गया दिखाई देने लगा तो देश के धर्म निरपेक्षता का आदर्श झूंठा साबित होने लगा है। भारत की धर्मनिरपेक्षता व्यवहारिक स्तर पर हस्तक्षेप, तटस्थता और धार्मिक उदासीनता के पचडे में फंस रही है।
धर्म निरपेक्षता कायम है तो इसलिए कि साथ रहने, काम करने और तालमेल बैठाने के सिवाय कोई चारा नहीं है। इन्दिरा गांधी ने धर्म निरपेक्षता जताने वाले कई फैसले किये। प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायवादी ताकतों पर प्रहार किया। उन्होंने राजनीति से इस पर काट बनाये रखी। उसके बाद भी देश में हिन्दुओं में समंवयवाद नहीं बढ़ा बल्कि कट्टरता भी बढ़ती गई। कुछ लोगों को अपनी पहचान कायम रखने और बहादुरी दिखाने का मौका कट्टरता में ही नजर आने लगा।
अटल बिहारी वाजपेयी ने साम्प्रदायिक दंगों की भत्र्सना की, गुजरात दंगों पर उन्होंने कहा था कि सरकार ने राज धर्म नहीं निभाया।  हिन्दुत्व को भारतीयता से जोड़ा परन्तु अब कुछ हिन्दू संगठन हिन्दुओं को लामबंद कर रहे है। कुछ अल्पसंख्यक संगठन व जातिवादी राजनैतिक पार्टियां अल्पसंख्कों को लामबंद करने में लगी है। धर्म निरपेक्षता के विरोधी कह रहे कि 75 वर्षो के बाद कठोर विचारधारा वाला व्यक्ति प्रधानमंत्री बना है, उनको एक ‘‘हिन्दू विस्मार्क’’ मिला है। हम भूल गये, आचार्य तुलसी ने कहा था ‘‘नेता के मन में राष्ट्र का स्थान प्रथम होना चाहिए, पार्टी का स्थान दूसरे नम्बर पर।’’ अल्पसंख्यक भी मुखर हो रहे है। उनमें प्रतिशोध की भावना प्रतीकात्मक रूप से दिखाई पड़ रही है। उनकी पहचान चाहे संख्या बल में नहीं है परन्तु तकनीकी रूप से यदाकदा कहर बरपाती रहती है।
अब भारत में प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक ताकतों के कारण सामाजिक अलगाव, राजनैतिक विघटन हो रहा है, धर्मान्धतावादी कट्टरपंथियों को तरजीह मिल रही है और कट्टरता बढ़ती जा रही है। राजनैतिक दल व सांप्रदायिक ताकते मासूम व बेगुनाह लोगों के जरिये अपने स्वार्थ की रोटियां सेंक रहे है। कुछ लोग यह भी कहने लगे है कि इस देश में आज अल्पसंख्यक होना खौफ में जीने वाली बात हो गई है। उग्र धार्मिक कट्टरवाद की बढ़ती स्वीकार्यता के चलते भारत की मूल प्रकृति को खतरा उत्पन्न हो रहा है। आज सर्वोच्च न्यायालय से गुहार की जा रही है कि प्रस्तावना से दोनों शब्द ‘‘धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद’’ को हटाया जाये, प्रियम्बल में भारत/इंडिया के स्थान के पर हिन्दुस्तान किया जाये, जिस पर सुनवाई की जा रही है। भारत की धर्मनिरपेक्षता व्यवहारिक स्तर पर भी हस्तक्षेप, तटस्थता और धार्मिक उदासीनता के पचडे में फंस गई है। भाजपा अल्पसंख्कों के लिए चलाई गई विशेष योजनाओं को तुष्टिकरण की नीति कह रही है। हम वैश्वीकरण की बात करते है परन्तु संकुचित साम्प्रदायिक विचारधारा को पनपा रहे है।
आज के हालात में सरकारों को पार्टी हित छोड़कर देश में फैल रही दुर्भावनाओं को दूर करने की जिम्मेदारी लेनी होगी। कानून, संवैधानिक प्रावधानों, न्याय व्यवस्था व समंवित विकास द्वारा हिन्दू हो या मुसलमान सभी समुदायों का विश्वास अर्जित करना होगा। सांप्रदायिकता फैलाने वाले समाज व देश के दुश्मन है, चाहे किसी समुदाय, राजनैतिक पार्टी से सम्बन्धित क्यों न हो, उन्हें देश हित में नहीं बख्शा जाना चाहिए तभी देश में शान्ति, समानता व आर्थिक सामाजिक जनतंत्र व न्याय की स्थापना होगी अन्यथा देश से धर्म निरपेक्षता का जनाजा निकल जायेगा और देश कमजोर हो जायगा, पुनः बिखर जायेगा।