सार्वजनिक हुई फ़ाइलों में नेताजी की गुप्तचर सेवा के प्रसंग

 राजेन्द्र बोड़ा(वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक) 


भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सुभाषचंद्र बोस का तेजस्वी व्यक्तित्व अपनी अलग आभा रखता है। देश को साम्राज्यवादी हुकूमत से आज़ाद कराने के लिए बोस ने अंतर्राष्ट्रीय मदद से सैन्य बल खड़ा किया जो ‘दिल्ली चलो’ नारे के साथ रणभूमि में निकल पड़ा। ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ का यह सेनापति लोगों की स्मृति में आज भी हीरो है। इस नायक ने ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ के जरिए ब्रिटेन की सत्ता को उखाड़ फेंकने का जो सैन्य प्रयास किया वह देश की आज़ादी की लड़ाई का एक विलक्षण आयाम है। जिन परिस्थितियों में बोस का विमान दुर्घटना में निधन, जिसे आज भी अनेक लोग मानने को तैयार नहीं हैं, हुआ उसने उनके व्यक्तित्व पर हमेशा के लिए रहस्य का आवरण डाल दिया। पिछली सदी के चौथे दशक में कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष रह चुके बोस का ब्रिटिश पुलिस को चकमा देकर हिंदुस्तान से बाहर चले जाना, जर्मनी में हिटलर से मिलना और बाद में जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फ़ौज खड़ी करना और उसे दिल्ली के लाल किले पर कब्जे के लिए रवाना करना सब उनके ऐसे कारनामे रहे जो सुभाषचंद्र बोस नाम के साथ ‘नेताजी’ विशेषण को सार्थक करते रहे हैं और लोगों में इस नायक के प्रति गर्व वाला आदर भाव बनाए रखे हैं। उनकी हवाई जहाज दुर्घटना में मृत्यु की सच्चाई का पता लगाने के लिए 1956 में शाहनवाज़ समिति, 1970 में खोसला आयोग तथा 2005 में मुखर्जी आयोग बने मगर उनकी रिपोर्टों के बाद भी लोगों की जिज्ञासा शांत नहीं हो सकी। नेताजी के निधन के रहस्य को समझने के लिए अध्येता तत्कालीन राजनीतिक तथा सैन्य वैश्विक परिस्थितियों को और कार्यवाहियों के तिलस्म को तोड़ने का प्रयास करते हैं। लंबे इंतज़ार के बाद भारत सरकार ने 23 जनवरी, 2016 को नेताजी से संबंधित सैकड़ों गोपनीय सरकारी फ़ाइलों को सार्वजनिक किया। ब्रिटिश कालीन तथा बाद की इन फ़ाइलों में तत्कालीन प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों, तथा शासकों की गुप्तचर रिपोर्टें, आंतरिक शासकीय टिप्पणियों का अथाह सागर है। मगर उनमें से घटनाओं एवं संदर्भों को तरतीबवार खोजना और उसके आधार पर इतिहास के खाली रह गए पन्नों को भरना आसान काम नहीं है। यह महत्ती काम किया है समाजवादी विचारधारा में आस्था रखने वाले सैकत नियोगी ने जिन्होंने ने इन फ़ाइलों का ही गहन अध्ययन नहीं किया है बल्कि घटनाओं के संदर्भों को स्पष्ट करते हुए सुभाषचंद्र बोस तथा आज़ाद हिन्द फ़ौज के कईं अनछुए पक्षों का अनुसंधान कर उन्हें उजागर करने की कोशिश की है।  
आज़ाद हिन्द फ़ौज के बारे में इतिहास में बहुत सारी जानकारियां दर्ज है। मगर उसकी गुप्तचर सेवा के बारे कोई जानकारी नहीं मिलती। गोपनीयता से बाहर आई पुरानी सरकारी फ़ाइलों के गहरे अध्ययन के बाद नियोगी ने पता लगाया है कि आज़ाद हिन्द फ़ौज की गुप्तचर सेवा काबुल और तुर्की तक फैली थी। इसके बारे में पहली बार विस्तृत जानकारी एकत्र कर “नेताजी’ज़ सीक्रेट सर्विस, द हिस्ट्री ऑफ “एम” ऑर्गेनाइज़ेशन” (नेताजी की गुप्तचर सेवा : “एम” संगठन का इतिहास) में प्रस्तुत कर इतिहास के अध्येताओं को और आगे काम करने को प्रेरित किया है। वास्तव में, जनरल मोहन सिंह और फिर रास बिहारी बोस द्वारा स्थापित तथा सुभाषचंद्र बोस द्वारा संगठित और व्यापक रूप से विस्तारित आज़ाद हिन्द फ़ौज की गुप्तचर सेवा के बड़े संगठन के बारे में इतिहास अब तक मौन रहा है। इसलिए इस सेवा के लोगों ने जो बलिदान दिया वह भी कभी लोगों के सामने नहीं आ सका और वे गुमनामी के अंधेरे में रहे। सैकत नियोगी ने यह अध्ययन कर बड़ा उपकार किया है। अब गेंद इतिहासवेत्ताओं को के पाले में है जिन्हें नियोगी द्वारा खोजे गए तथ्यों के सिरों पर आगे काम करना है। 
जो नई जानकारियां मिली हैं उनके अनुसार गुप्तचर सेवा “एम” के लोगों को नेताजी की देखरेख में पिनांग के तंजोंग बुंगा केंद्र में प्रशिक्षित किया गया था। उन्हें जापानी पनडुब्बियों के जरिये या हवाईजहाजों से भारत या सीलोन में पैराशूट द्वारा पंहुचाया गया। पूरी तरह शस्त्रों से सुसज्जित एक जापानी पनडुब्बी मार्च 1944 में पिनांग के सुरक्षित बेस से निकली, जिसमें चार आईएनए गुप्तचर सेवा अधिकारी थे, जिनका गंतव्य बंगाल की खाड़ी का पुरी समुद्र तट था। पनडुब्बी में पबित्रमोहन रॉय (नेता), सरदार मोहिंदर सिंह (बम विशेषज्ञ), तुहिन मुखर्जी (कोडिंग विशेषज्ञ) और अमरीक सिंह गिल (रेडियो विशेषज्ञ) थे। प्रस्थान से ठीक नेताजी सुभाष का संदेश सीधे उनके पास आया: "हालांकि आप संख्या में कम हैं परंतु आपका मिशन पूरी ब्रिटिश गुप्त सेवा पर घातक प्रहार करेगा। कलकत्ता में इस गुप्तचर बेस को हर कीमत पर स्थापित करना है।” पनडुब्बी अपने गंतव्य पर पहुंच गई और चारों को उनकी मोटर से चलने वाली छोटी नौका पर बिठा दिया गया। दिन उगने के ठीक पहले उन्हें विशाल कोणार्क सूर्य मंदिर दिखने लगा। सिंह ने मिनटों में बम और पावर पैक्स को मंदिर के दक्षिण की ओर की दीवार से 25 कदम दूर ज़मीन में खड्डा खोड़ कर छुपा दिया। वे रेडियो के महत्वपूर्ण पार्ट्स लेकर जल्दी तितर-बितर हो गए। रॉय ने उन पार्ट्स को एक ग्रामोफोन में छुपाया था। तय हुआ कि वे रविवार को सुबह 10 बजे कलकत्ता के मेट्रो सिनेमा में मिलेंगे। यहां एक घातक गलती हो गई। निर्देशों के खिलाफ मुखर्जी अपने ससुराल वालों से मिलने चले गए। उनके ससुर ने उन्हें कलकत्ता पुलिस को सौंप देने में कोई देरी नहीं की और उनके सिर पर 5,000 रुपये का इनाम हासिल कर लिया। यातनाएं सहते हुए उन्होंने रंगून में नेताजी के मुख्यालय में प्रसारण के लिए महत्वपूर्ण रेडियो कोड का खुलासा कर दिया। इसके तुरंत बाद, रॉय और गिल, हरिदास मित्रा और उनकी पत्नी बेला बोस के संपर्क में आए। बेला बॉस नेताजी के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस की बेटी थी।  साथ में वे हरिदास मित्र के करीबी दोस्त ज्योतिष बोस और भूमिगत के बाकी भरोसेमंद सदस्यों से मिले। सबने मिल कर एक नए कोड के साथ रेडियो संपर्क का पहला परीक्षण डेंटल सर्जन, डॉ दत्त के घर से किया। अब, उन्हें शक्तिशाली ट्रांसमीटर स्थापित करने के लिए एक स्थायी ठिकाने की आवश्यकता थी। वे जल्द ही बेहाला में बस गए। उन्होंने हरिदास मित्रा, ज्योतिष बोस, बेला बोस और अन्य भरोसेमंद भूमिगत साथियों को सर्वश्रेष्ठ रेडियो ट्रांस रिसीवरों से बना के दिए। इस सुविधा का उपयोग करते हुए इण गुप्तचरों ने आज़ाद हिन्द फ़ौज के मुख्यालय को नए कोड में भेजे संदेशों में सूचनाएं भेजनी शुरू की जिनमें कोहिमा के लिए महत्वपूर्ण ब्रिटिश सैनिकों की आवाजाही, दमदम हवाई अड्डे पर भारी बमवर्षकों का जमावडे की सूचनाएं शामिल थी। उन्होंने अपने शक्तिशाली ट्रांसमीटरों से ब्रितानवी नौसेना और सेना के संकेतों और उनकी ज्ञात फ्रीक्वेन्सियों में भी सेंधमारी की और उन्हें जाम भी किया। इण गुप्तचरों द्वारा भेजे गए सैकड़ों कोड संदेश युद्ध के मैदान में आज़ाद हिन्द फ़ौज के कमांडरों के लिए बेहद मददगार साबित हुए। उधर मोहिंदर सिंह ने जालंधर में इस गुप्तचर सेवा का एक मजबूत आधार केंद्र स्थापित किया। लेकिन अफसोस, इनाम के लालच में  फगवाड़ा में उन्हें धोखा दिया गया और लाहौर में उन्हें यातनाएं देकर मौत के घाट उतार दिया गया। सिंह का यह बलिदान भी आज तक लोग नहीं जानते हैं। दुर्भाग्य से इस गुप्तचर सेवा के अनेक एजेंट धोखे के शिकार हुए, प्रताड़ित हुए और मौत की सजा पाई। लेकिन वे गुमनामी में रह गए और भुला दिए गए। ब्रितानी ख़ुफ़िया तंत्र अपना शिकंजा कसा और बहुत जल्द रॉय को भी गिरफ्तार कर लिया गया; ऐसा ही गिल के साथ भी हुआ। और फिर हरिदास मित्रा और ज्योतिष बोस को भी गिरफ्तार कर लिया गया। बहुत कम लोगों को उन पर चले "कलकत्ता षडयंत्र केस" की जानकारी है जिसमें आज़ाद हिन्द फ़ौज की गुप्तचर सेवा के इण चार देशभक्तों के खिलाफ ब्रितानवी सरकार ने सैन्य मुकदमा चलाया था और "किंग एम्परर के विरुद्ध युद्ध छेड़ने" के आरोप में चारों को फांसी की सजा सुनाई गई थी। मगर वह कुछ लोगों के ध्यान में इसलिए आ गया क्योंकि महात्मा गांधी ने उनके मामले में हस्तक्षेप करते हुए 14 सितंबर, 1945 को लॉर्ड वेवेल को पत्र लिखा, "अगर मौत की सजा को लागू किया जाता है तो यह पहले दर्जे की राजनीतिक गलती होगी।" इससे उनकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। 
ऐसा माना जाता है कि आज़ाद हिन्द फ़ौज की सीक्रेट सर्विस के 10 ऐसे समूह, जो पहले देश के विभिन्न हिस्सों में उतरे थे, को भी मौत की सजा मिली और उन्हें फांसी दे दी गई थी। विडम्बना है कि यह इतिहास हमारे देश को ज्ञात नहीं है। यह समय है कि हम कम से कम इन शहीदों के बलिदानों को सामने लायें और उन्हें सम्मान सहित याद करें। अपनी खोज में नियोगी ने जयप्रकाश नारायण तथा राम मनोहर लोहिया के इस गुप्तचर सेवा से संबंधों को के अनेक संकेत पाए हैं जिन पर इतिहास के अध्येता यदि काम करते हैं तो देश के आजादी के आंदोलन की कईं दिलचस्प परतें खुल सकती हैं। जरूरत है कि इस गुप्तचर सेवा के उन सैकड़ों लोगों के बलिदान का दस्तावेजीकरण किया जाए और उन्हें मान्यता दी जाय जो पूर्वी एशिया से देश भर में उतरे और स्वतंत्रता संग्राम की वेदी पर शहीद हुए। उनके बलिदान और उनके बहादुर भारतीय साथियों को अब स्वतंत्रता की लड़ाई की हमारी स्मृति में सम्मानित रूप से अंकित किया जाना चाहिए।