डॉ अंबेडकर व उनके क्रांतिकारी विचार


 कियं चु धम्मे!

अपासिनवे बहुकयाने दया दाने सचे सोचये मादवे साधवे च॥

सम्राट अशोक अपने अभिलेखों में प्रश्न करता है और अपने दूसरे तथा 7वें शिलालेख के माध्यम से वह इसका उत्तर भी देता है-
अर्थात कम पाप करना, कल्याण करना दया-दान करना, सत्य बोलना, पवित्रता से रहना, स्वभाव में मधुरता तथा साधुता बनाए रखना।
अशोक का धम्म वस्तुतः एक नैतिक संहिता थी,जिसका उद्देश्य लोगों में प्रेम, नैतिकता, शांति तथा सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को जगाकर अपने विशाल साम्राज्य में शांति बनाए रखना था।

अशोक की इस धम्म नीति का गहन प्रभाव डॉ अंबेडकर की चित्त-स्मृति,जीवन एवं चरित्र पर पडा।जिसकी अनुभूति एकता व अखंडता सुनिश्चित करने वाले संवैधानिक उपबंधों में होती है।इसके लिये उन्होंने चार सिद्धांत बताये।ये सिद्धांत हैं : भारतीयों द्वारा आत्मविश्लेषण, संवैधानिक मार्ग का अनुसरण, नायक की प्रशंसा की फटकार, राजनैतिक प्रजातंत्र के साथ-साथ सामाजिक एवं आर्थिक प्रजातंत्र की स्थापना।राजा धर व जयचंद जैसे ऐतिहासिक साक्ष्य बता रहे थे कि स्वतंत्रता मिलने पर भी राष्ट्र की एकता व अखंडता बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा।इसलिये उन्होंने संविधान सभा के माध्यम से पूरे भारतीयों से आत्मावलोकन करने की अपील की जिससे यह राष्ट्र और शक्तिशाली हो सके।एक ओर जहाँ अंबेडकर ने भारतीयों से आत्मावलोकन की अपील की,वहीं उनसे यह भी कहा कि अगर हमें अपने राष्ट्र को सुदृढ़ बनाना है,तो हमें अधिक से अधिक संवैधानिक साधनों का प्रयोग करना चाहिये।अगर हमें अपने प्रजातंत्र को वास्तविकता का जामा पहनाना है तो हमें ऐसा करना होगा।

डॉ. अंबेडकर ने कभी भी खूनी क्रान्ति को प्राथमिकता नहीं दी।उन्होंने तो सविनय अवज्ञा आंदोलन तथा सत्याग्रह तक की मनाही कर दी।उन्होंने कहा कि जहाँ तक हो हमें संवैधानिक संस्थाओं का ही सहारा लेना चाहिये। ये हड़ताल, सत्याग्रह, तालाबन्दी आदि उनके अनुसार सभी अराजकता के व्याकरण हैं।अतः हमें हर दशा में संवैधानिक पद्धति को ही अपनाना चाहिए।
राष्ट्र निर्माण एवं प्रजातंत्र की मजबूती के लिये डॉ. अंबेडकर ने नायक स्तुति की पुरजोर भर्त्सना की।अगर हमें अपनी संवैधानिक संस्थाओं तथा प्रजातान्त्रिक मूल्यों की सुरक्षा करनी है तो हमें नायक स्तुति बंद करनी चाहिए।

राष्ट्र के भविष्य को सुदृढ़ करने हेतु बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधान सभा को भी बताया कि 26 जनवरी 1950 विरोधाभासी स्थिति में प्रवेश करने जा रहे हैं, जहाँ राजनीति में तो हमने नागरिकों को समानता दे दी है. राजनीति में हमने ये सिद्धांत लागू कर दिया है – एक आदमी, एक वोट एक वोट एकमूल्य अर्थात् अमीर-गरीब सभी के वोट का मूल्य एक होगा परन्तु सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में ऐतिहासिक कारणों से हम समानता से दूर रहे हैं।


“मैं कर्नाटक को मुंबई से अलग करने के विरुद्ध हूं क्योंकि एक भाषा एक प्रांत का सिद्धांत अमल में लाने के लिए योग्य नहीं है. आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि लोगों में संयुक्त राष्ट्रीयता का आभास उत्पन्न किया जाए. उनमें यह भावना नहीं है कि वह सर्वप्रथम भारतीय और बाद में हिंदू, मुस्लिम, कर्नाटकी बल्कि यह भावना कि वह प्रथमतः और अंततः भारतीय है, उत्पन्न की जाए।”
       बाबा साहब सदैव राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहते थे।इस बात की पुष्टि उनके एक रिपोर्ट के उपर्युक्त छोटे से अंश से हो जाती है।यदि यह आदर्श हो तो फिर ऐसी कोई बात नहीं करनी चाहिए जिससे क्षेत्रीयतावाद तथा पृथक-पृथक समूह चेतनाओं का उदय हो।


डॉ अंबेडकर एकता व अखंडता के शिल्पी के रूप में-

संविधान सभा में विविध मुद्दों पर डॉ अंबेडकर द्वारा अपनी राय रखी गयी।इनके व्यक्तव्यों ने संविधान प्रारूप में उन बिन्दुओं को समाहित किया,जो एकता-अखंडता के शुचि तत्व बने।यथा-

1. प्रस्तावना:-संविधान की प्रस्तावना में ‘एकता’ शब्द का समावेश,जो कालान्तर में ‘अखंडता’ शब्द के साथ अधिक प्रभावी रूप में प्रगाढ हुआ।

2.राज्यों का संघ(union of states)अवधारणा-
डॉ अंबेडकर ने ‘संघीय राज्य’ की अवधारणा को नकारते हुए ‘राज्यों का संघ’ की अवधारणा पर जोर दिया।

“यूनियन ऑफ स्टेट्स की अवधारणा दो बिन्दुओं के कारण उत्तम है।प्रथम-भारत कोई संविदा या समझौता आधारित संघ नहीं है और द्वितीय-राज्यों को यह अधिकार नहीं होगा कि वह भारतीय संघ से स्वयं को विलगित कर सकें।”
           -कांस्टीट्यूशन असेंबली डिबेट्स,वॉल्यूम 7, पेज संख्या-43

3.नागरिकता उपबंधों द्वारा एकता-अखंडता सुनिश्चितता-
संविधान सभा डिबेट्स में ‘नागरिकता’ के विषय पर जमकर डिबेट हुई।जहाँ डॉ अंबेडकर के प्रयासों से भारतीय नागरिकता प्राप्ति के 5 तरीके तय किए गये।यथा-जन्म से,वंश से,पंजीकरण द्वारा,प्राकृतिकरण द्वारा एवं किसी भौतिक क्षेत्र के अधिग्रहण द्वारा।यही नहीं नागरिकता खोने अथवा छोडने के भी आधार तय किए गये।यथा- त्याग एवं वंचना।

4. मूल अधिकार एवं एकता-अखंडता-
सामाजिक चेतना के अग्रगामी के रूप में एक ओर अंबेडकर ने संविधान सभा के माध्यम से संविधान में 7 प्रकार के अधिकारों को सुनिश्चित किया,वहीं दूसरी ओर मूल अधिकारों के अनन्य उपयोग पर सकारात्मक नियंत्रण के लिए कुछ उपबंध भी विकसित करवाए।यथा-मूल अधिकार निरपेक्ष नहीं हो सकते एवं अनुच्छेद 31A,31B व 31C द्वारा इनके क्षेत्र को सीमित किया गया।

5. नीति निर्देशक तत्व एवं एकता-अखंडता:-
जहाँ संविधान सभा में नीति निर्देशक तत्वों को कमतर आँका जा रहा था,वहीं डॉ अंबेडकर डिबेट्स में कह रहे थे कि-

“नीति निर्देशक तत्वों की राष्ट्र की एकता- अखंडता में अपरिहार्य भूमिका है,क्योंकि ये ही वे तत्व हैं जो भारतीय राजनीति के लक्ष्य को ‘राजनैतिक लोकतंत्र’ से अलग कर ‘आर्थिक लोकतंत्र’ के रूप में परिभाषित करते हैं ताकि राष्ट्र के संसाधनों का आर्थिक वितरण समानता आधारित हो और निम्न तबके में ‘अलगाव के स्थान पर एकता की भावना’ संचित हो।”

6.एकता व अखंडता के लिए संसदीय व्यवस्था का अंगीकरण:-
“ एक लोकतांत्रिक कार्यपालिका दो परिस्थितियों को संतुष्ट करने वाली होनी चाहिए।पहला स्थायित्व एवं दूसरा उत्तरदायित्व। दुर्भाग्य से ऐसा कोई भी तंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है जो दोनों बिंदुओं को समान प्रभाव से लागू कर सके।अमेरिकी व्यवस्था अधिक स्थायित्व देती है पर उसमें उत्तरदायित्व का अभाव है।वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश सिस्टम अधिक उत्तरदायी है किन्तु उसमें स्थायित्व कम है अतः संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में मेरी राय यह है कि कुछ परिवर्तनों के साथ संसदीय कार्यपालिका तंत्र अधिक उत्तरदायित्व के साथ अधिक स्थायित्व वाला होगा।”

- कांस्टीट्यूशन असेंबली डिबेट्स,वॉल्यूम 7,पेज संख्या 32

7. अखिल भारतीय सेवाएँ एवं एकता और अखंडता:-
“चूंकि भारत राज्यों का संघ है।अतः संविधान राज्यों को अपनी स्वयं की सिविल सेवा रखने से वंचित न करते हुए एक अखिल भारतीय सेवा भी सुनिश्चित करता है।जिसमें अखिल भारतीय आधार पर सामान्य योग्यता पर आधारित,समान वेतन एवं सुविधाओं युक्त एक अखिल भारतीय सेवा की स्थापना की जानी है।ऐसे अखिल भारतीय सेवकों को को संघ के रणनीतिक पदों पर लगाया जा सकेगा ऐसा करने से राष्ट्र में राज्यों की अलगाववादी विचारधारा पर विराम लगाया जा सकेगा।”

कॉन्स्टीट्यूशन असेंबली डिबेट्स,वॉल्यूम 7,पेज 41-42

8. आपातकालीन प्रावधान एवं एकता-अखंडता:-
“ सामान्य समय में भारतीय संविधान एक संघीय ढांचे के रूप में कार्य करता है,किन्तु आपातकाल के समय यह ढांचा इस प्रकार से अभिकल्पित किया गया है कि ये एकल तंत्र के रूप में कार्य कर सके,ताकि देश की एकता व अखंडता को सुनिश्चित किया जा सके।”

कॉन्स्टीट्यूशन असेंबली डिबेट्स,वॉल्यूम 7,पेज नंबर 34

9. समान नागरिक संहिता:-
देश की एकता व अखंडता के लिए डॉ अंबेडकर समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे।यद्यपि वे इसे लागू करवाने में असफल रहे तथापि उन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया।बाबा साहेब ने 2 दिसंबर 1948 को संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में यूनीफॉर्म सिविल कोड को शामिल करने के फैसले का बचाव करते हुए कहा था कि भविष्य में राज्य इसे उचित जगह पर रख सकेगी,हालांकि अंबेडकर ने यह साफ-साफ कहा था कि इस प्रावधान को नागरिकों पर जबरन नहीं थोपा जा सकता क्योंकि मुसलमान को भड़काकर इसे लागू करना महज पागलपन होगा. इससे कुछ दिनों पहले 23 नवंबर, 1948 को कहा था कि भविष्य में संसद इसे उन लोगों के लिए लागू करे जो स्वेच्छा से यूनिफॉर्म सिविल कोड के लिए तैयार हैं.
संविधान सभा से अंबेडकर ने कहा था- “मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह समझ नहीं आता कि धर्म को इतना वृहद अधिकार क्यों दिया जाए कि वह हमारे पूरे जीवन पर अधिपत्य कर ले और यहां तक कि विधायिका को भी उस क्षेत्र में घुसने से रोक सके. आखिर यह स्वतंत्रता हमें किस लिए मिली है? यह स्वतंत्रता हमें इसलिए मिली है कि हम अपने सामाजिक ढांचे को सुधार सकें. यह ढांचा अनेक विषमताओं, असमानताओं और भेदभावों से बुरी तरह ग्रस्त है और यह सभी हमारे मौलिक अधिकारों के संघर्ष में खड़े हैं।”

हालांकि डॉ अंबेडकर ने कहा कि-“नीति निर्देशक तत्वों में दिए यूनीफॉर्म सिविल कोड का प्रावधान राज्य को इसे लागू करने के लिए बाध्य नहीं करता, बस उसे शक्ति देता है कि इस दिशा में आगे बढ़ सके…इसे लेकर डरने की जरूरत नहीं है... क्योंकि राज्य इस शक्ति का इस्तेमाल ऐसे किसी तरीके से नहीं कर सकता जिसपर देश के मुसलमानों, ईसाइयों या अन्य किसी समुदाय को आपत्ति हो”


पाकिस्तान पर अंबेडकर के विचार- पाकिस्तान: एकता व अखंडता के लिए चुनौती!

पाकिस्तान निर्माण के विषय में डॉ अंबेडकर के विचार थे-“ पाकिस्ता‍न का विषय,अथवा दूसरे शब्दों में भारत का विभाजन, इतना गंभीर मामला है कि मुसलमानों को केवल इसे प्रमाणित करने का दायित्व ही नहीं लेना होगा बल्कि उन्हें ऐसा साक्ष्य भी देना पड़ेगा जो अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के जमीर को संतुष्ट कर सके, जिससे वे अपना मामला जीत सकें।अब देखते हैं कि उक्त सीमाओं के परिप्रेक्ष्य‍ में पाकिस्तान का मामला किस प्रकार ठहरता है?”
क्या पाकिस्तान का बनना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि मुस्लिम जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा कुछ निश्चित क्षेत्रों में केंद्रित है जिन्हें सरलता से भारत से अलग किया जा सकता है? इसमें तो कोई दो मत नहीं हैं कि मुस्लिम जनसंख्या कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में केंद्रित है जिनका अलग किया जाना संभव है। परंतु इससे क्या? इस प्रश्न को समझने एवं इस पर विचार करने के लिए हमें इस मौलिक तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति ने भारत को एक एकल भौगोलिक इकाई के रूप में निर्मित किया है।”

“क्या पाकिस्तान इसलिए बनना चाहिए कि मुसलमान एक राष्ट्र हैं? दुर्भाग्य से,श्री जिन्ना ऐसे समय में पाकिस्तान के उपासक और मुस्लिम राष्ट्रीयता के अभिनेता हुए हैं,जब सारा संसार राष्ट्रीयता की बुराई के विरुद्ध चिल्ला रहा है और किसी भी तरह के अंतरराष्ट्रीय संगठन में शरण लेना चाहता है।श्री जिन्ना मुस्लिम राष्ट्रीयता के अपने इस नए विश्वास से इतने आत्मविभोर हैं कि वे इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि एक ऐसे समाज के बीच जिसके कुछ हिस्से अलग हो गए हों और एक समाज जिसके कुछ अंग शिथिल पड़ गए हों, कोई भेद है और कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति जिसकी उपेक्षा नहीं कर सकता।जब एक समाज छिन्न-भिन्न हो रहा हो और दो राष्ट्र का सिद्धांत समाज और देश के विभाजन का स्पष्ट सूचक हो, तो कार्लाइल के 'ऑरगेनिक फिलामेंट्स' - अर्थात वे प्रबल शक्तियाँ जो उन भागों को एक सूत्र में बाँधने के लिए सक्षम हों जो छिन्न-भिन्न हो चुकी हैं - उनका कोई अस्तित्व नहीं है ऐसे मामलों में विघटन की भावना खेद जनक ही समझी जा सकती है। यह रोकी नहीं जा सकती। परंतु जहाँ उक्त शक्तियों का अस्तित्व है, उनके ऊपर ध्यान न देना और मुसलमानों की भाँति समाज तथा देश को जान-बूझकर विभाजित करने पर बल देना, एक घोर अपराध है। मुसलमान एक भिन्न राष्ट्र इसलिए नहीं चाहते कि वे भिन्न रहे हैं बल्कि इसलिए कि यह उनकी कामना है। मुसलमानों में बहुत कुछ है जिसके फलस्वरूप, यदि वे चाहें तो अपने को एक राष्ट्र के रूप में ढाल सकते हैं,परंतु क्या ऐसी कोई स्थिति नहीं है जो हिंदू और मुसलमानों में सघन रूप से पाई जाती हो और जिसके फलस्वरूप यदि वह विकसित की जाए तो वह उन दोनों को एक मानव समाज में ढाल सके? इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनके अनेक ढंग, तौर-तरीके, धार्मिक तथा सामाजिक रीति-रिवाज समान हैं। इस बात से भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि कुछ ऐसे भी रीति-रिवाज, संस्कार तथा आचरण हैं, जो धर्म पर आधारित हैं और जिनके फलस्वरूप हिंदू और मुसलमान आपस में दो भागों में विभक्त हैं। प्रश्न यह है कि उनमें से किस पर अधिक बल दिया जाए। यदि उन बातों पर बल दिया जाता है, जो दोनों में समान रूप से पाई जाती हैं, तो भारत में दो राष्ट्रों की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। पर यदि उन बातों पर ध्यान दिया जाता है जो सामान्या रूप से भिन्न हैं, तो ऐसी स्थिति में निःसंदेह दो राष्ट्रों का सवाल सही है। यही धारणा श्री जिन्ना की है।
क्या पाकिस्तान इसलिए बनना चाहिए कि इसके अभाव में स्वराज एक हिंदू राज होगा? मुस्लिम जनता उक्त प्रलाप में इतनी आसानी से बह जाती है कि इसमें जो निहित भ्रांतियाँ हैं, उनका पर्दाफाश कर देना परमावश्यक है।

सर्वप्रथम,हिंदू राज के लिए मुस्लिम आपत्ति क्या शुद्ध अंतःकरणीय है, अथवा एक राजनीतिक विरोध है? यदि यह शुद्ध अंतःकरणीय है तो यही कहा जा सकता है कि यह बड़ा विचित्र अंतःकरण है? वास्तव में ऐसे करोड़ों मुसलमान भारत में हैं जो बिना किसी प्रतिबंध तथा नियंत्रण के हिंदू रियासतों में रहते हैं। वहाँ मुस्लिम लीग अथवा मुसलमानों द्वारा कोई आपत्ति नहीं उठाई गई है। मुसलमानों ने एक समय ब्रिटिश राज के विरुद्ध शुद्ध अंतःकरण से आपत्ति उठाई थी। आज उन्हें मात्र आपत्ति ही नहीं है, अपितु वे उसके प्रबल समर्थक हैं। ब्रिटिश राज के प्रति आपत्ति न होना अथवा हिंदू रियासतों के हिंदू राजाओं के राज के प्रति आपत्ति न होना, किंतु अँग्रेजों से भारत के लिए स्वराज लेने पर इस आधार पर आपत्ति होना कि ऐसा भारत हिंदू राज होगा, मानो उसमें कोई अंकुश ही नहीं होंगे, ऐसी मनोवृत्ति है जिसका तर्क समझना बहुत कठिन है।”


पुनश्च:-
बाबा साहेब आंबेडकर ने केवल राष्ट्र निर्माण हेतु प्रक्रियाओं का ही उद्बोधन नही किया बल्कि डॉ. आंबेडकर ने भविष्य में राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को कैसे अक्षुण्ण रखना है,इसके उपाय भी बताये।डॉ. भीमराव अंबेडकर एक महान व्यक्ति थे,जिन्होंने राष्ट्र को एकता एवं अखंडता रूपी सुंदर माला में पिरोया है. जोकि पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी सुगंध फैलाकर आज भी अमर है।
             गीता में कहा गया है – ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्’ जिसका अर्थ है – जब जब पृथ्वी पर अधर्म का साम्राज्य स्थापित हो जाता है तब तब अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करने के लिए ईश्वर अवतार लेते हैं।अंग्रेजों के शासन काल में जब भारत माता गुलामी की जंजीरों में जकड़ी कराह रही थी,तब उस घड़ी में भी दकियानूसी एवं गलत विचारधारा के लोग मातृभूमि को विदेशियों के चंगुल से मुक्त करने के लिए संघर्ष करने के बजाय मानव-मानव में जाति के आधार पर विभेद करने से नहीं हिचकते थे..ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में कट्टरपंथियों का विरोध कर दलितों का उद्धार करने एवं राष्ट्र में एकता और अखंडता स्थापित करने में जिस महामानव का जन्म हुआ उन्हें ही दुनिया आज डॉ. भीमराव अंबेडकर के नाम से जानती है. वह अपने कर्मों के कारण आज संपूर्ण भारत में ईश्वर के रूप में पूजे जाते हैं।भारतीय संविधान को बनाने में उन्होंने हर व्यक्ति की आवश्यकता व सम्मान का ध्यान रखा है।उन्होंने एक ऐसे संविधान का निर्माण किया जोकि राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को बनाए हुए हैं।

“संविधान का निर्माण कर
जिसने भारत को सींचा है
कोई और नहीं मित्रों
वह अंबेडकर आज भी 
हमारे लिए विजेता है”

राष्ट्र की एकता व अखंडता हेतु सर्वस्व समर्पित करने वाले बाबासाहेब की पहचान न्यायवादी संविधान है।जिसकी व्याख्याओं से समरसता की सरस धारा अनवरत प्रवाहित होती रहेगी॥

राजेश एस राजन