आलेख : सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद का पाखंड पर्व

लेखक : वेद व्यास (वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार)


डाॅ. भीमराव अंबेडकर(1891-1956) को याद करते हुए मैं देखता हूं कि आजादी के 76 साल बाद भी भारतीय गणतंत्र के 3 ज्वलंत प्रश्न हम हल नहीं कर पाए हैं। अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों से जुड़े सभी सवाल हमें यह सोचने को विवश करते हैं कि भारत के लोकतंत्र में आज तक स्वतंत्रता, समानता और बंधुता का अभाव है तथा हम अभी तक एक सभ्य समाज की स्थापना का सपना पूरा नहीं कर सके हैं। डाॅ. भीमराव अंबेडकर एक न्यायविद्, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, राजनेता, शिक्षाविद, अछूतों के मसीहा, सामाजिक, न्याय के प्रवर्तक और संविधान के प्रारूपकार थे। वह भारत के पहले विधि एवं न्याय मंत्री भी रहे (नेहरू मंत्रिमंडल) और 1990 में उन्हें ‘देर आए दुरुस्त आए‘ की भावना से 'भारत रत्न‘ का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भी दिया गया था। प्रतिवर्ष 14 अप्रेल को राजकीय अवकाश की घोषणा जहां डाॅ. अंबेडकर के राजनीतिक महत्व को स्थापित करती है वहां उनके सामाजिक-आर्थिक समानता के संघर्ष की याद दिलाती है। इसलिए अंबेडकर आज कोई मूर्तिपूजा के विषय ही नहीं है।

संक्षिप्त में डाॅ. भीमराव अंबेडकर की असहमति उस भारतीय हिंदू समाज व्यवस्था से है जो कि (1) समाज का वर्ग विभाजन करती है (2) ऊंच-नीच का भेद फैलाती है (3) खान-पान और सामाजिक सम्मिश्रण पर रोक लगाती है (4) कुछ वर्गों को विशेष अधिकार देती है तो कुछ वर्गों का सामाजिक और आर्थिक तिरस्कार करती है (5) व्यवसाय चयन में रोक लगाती है (6) विवाह संबंधों पर प्रतिबंध लगाती है और कहती है कि अपने वर्ण (जाति) से बाहर विवाह करना एक अपराध है। फिर इस जाति प्रथा के तीन मुख्य शस्त्र हैं-धार्मिक संस्कार, आर्थिक और राजनीतिक शक्ति स्रोत। यह तीनों शक्ति धाराएं ही आज भारत की सामाजिक व्यवस्था की माई-बाप हैं। इसीलिए डाॅ. अंबेडकर भी कहा करते थे कि जाति प्रथा एक सामाजिक साम्राज्यवाद है तथा अस्पृष्यता (छुआछूत) जातिवाद का ही कड़वा फल हैं।

भारतीय हिंदू समाज में अछूतों (दलितों) का दर्जा इसलिए नीचे से नीचा रहा है और आजादी के पहले ( 1947-48) तक स्थिति यह थी कि स्वर्ण हिंदू किसी अछूत को छूना पाप समझते थे। उनकी छाया पड़ने और आवाज सुनने मात्र से अपवित्रता का बोध होता था। उन पर यह भी प्रतिबंध था कि वह कौन से जानवर पाल सकते हैं और कौन से नहीं। उन्हें गांव से बाहर नारकीय गंदगी में रहने के लिए विवश किया जाता था। वे कुओं से पानी नहीं भर सकते थे। उनके बच्चे उन स्कूलों में नहीं जा सकते थे जहां  सवर्णों के बच्चे पढ़ते थे। मंदिरों के दरवाजे उनके लिए बंद थे। नाई उनके बाल नहीं काटते थे और धोबी उनके कपड़े नहीं धोते थे। सवर्ण हिंदू उन्हें जानवरों से बदतर समझते थे। सरकारी नौकरियों (पुलिस-सेना) आदि के दरवाजे उनके लिए बंद थे और शिक्षा उनके लिए दिवास्वप्न थी। संस्कृति गहरा अंधा कूप थी। वे बेचारे अछूत पैदा हुए, अछूत बनकर ही जीते और अछूत रहते हुए ही मर गए।

ऐसे में डॉ. अंबेडकर को समझने के लिए हमें सबसे पहले इस तथाकथित भारतीय हिंदू समाज व्यवस्था को विस्तार से समझना होगा जो अछूतों को दासता की पैशाचिक प्रथा से आज भी मुक्ति नहीं देना चाहती है और भारत के संविधान की मूलभावना (सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, न्याय और समानता ) का ही साम, दाम, दंड, भेद से विरोध करती है। आज के लोकतंत्र में 'सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद' की यही मुख्य राजनीति है।

डॉ. अंबेडकर आज इसीलिए प्रासंगिक हैं कि स्वतंत्र भारत के व्यवहारिक सामाजिक व्यवस्था में सवर्ण जातियों को सामंतवाद जीवित है तथा जातीय भेदभाव की मानसिकताएं हमारा पीछा नहीं छोड़ रही हैं। जिस तरह महात्मा गांधी स्वतंत्र भारत में ग्राम स्वराज की चेतना के पर्याय हैं। उसी तरह डॉ. अंबेडकर आज भी भारत में सामाजिक परिवर्तन की अग्रणी मशाल हैं। यह डॉ. अंबेडकर की ही सूझबूझ थी कि 'एक व्यक्ति-एक वोट' के बुनियादी अधिकार ने आज हमारे लोकतंत्र में व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई का एक ऐसा आधार बना दिया है कि वर्तमान की कोई भी राजनीतिक पार्टी दलितों की उपेक्षा का जोखिम लेना नहीं चाहती। यही कारण है कि भारतीय गणतंत्र के सभी महत्वपूर्ण पदों पर दलित जातियों के कुछ लोग स्थापित और सम्मानित भी हुए हैं और पिछले कई दशकों में अंबेडकर की अनिवार्यता को स्वीकारा जाने भी लगा है। लेकिन कष्ट की बात यह है कि सामाजिक न्याय के इस संघर्ष ने जिस तरह हमारी राजनीतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप किया है उसी तरह हमारी सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था में स्थापित जाति आधारित हिंदू राष्ट्रवाद की मानसिकता को नहीं बदलना है। जैसे-जैसे दलित जातियों में शिक्षा का प्रसार हो रहा है और ये राजनीतिक रूप से जागरूक और संगठित हो रहे हैं वैसे-वैसे दलित प्रतिरोध का बोलचाल बढ़ रहा है। इस जातीय ध्रुवीकरण द्वारा ही आज यह परिणाम है कि पूरे भारत में सवर्ण- अछूत राजनीति का घमासान मचा हुआ है तथा भारत के सभी राज्यों में जाति, धर्म और सामंतवाद के मोर्चे दलित जातियों के साथ प्यार और नफरत का खेल एक साथ खेल रहे हैं। यानी कि 'अछूत प्रथा' से हमारी सामाजिक व्यवस्था पहले से और अधिक बर्बर और संवेदनहीन होती जा रही है तथा उत्तर भारत में तो दलित उत्पीड़न की विकट स्थिति है। उत्तर प्रदेश , बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान राज्य आज दलितों के प्रति अत्यधिक अमानवीय हैं। डॉ. अंबेडकर की मूर्तियां आज भी सबसे अधिक अपमानित हो रही हैं तथा अंबेडकर को पाठ्यक्रमों से हटाया जा रहा है। यहां तक कि अंबेडकर को राजनीति ने सिर्फ एक दिन का ही विचारणीय विषय बना दिया है।

समझने की बात यह भी है कि डॉ. अंबेडकर जिस स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व पर जोर देते थे वही सब कुछ आज जाति और वर्ण व्यवस्था की चुनावी राजनीति में बदल गया है। अंबेडकर और महात्मा गांधी भी पक्ष और विपक्ष में बांट दिए गए हैं। व्यवस्था परिवर्तन की इस राजनीति का भीषणतम रूप आज उत्तर प्रदेश और बिहार में बखूबी देखा जा सकता है। यानी कि जातीय कटुताएं अधिक बढ़ रही हैं तथा इस पूरी महाभारत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों के प्रति समाज में अन्याय भी बढ़ रहा है। सत्ता-व्यवस्था के इस चुनावी महासंग्राम का सबसे दुखद पहलू यह भी है कि हर जाति ने अपने-अपने महापुरुष और महानायकों को अपनी-अपनी जाति का झंडा और डंडा बना दिया है तथा भारतीय गणतंत्र में सामाजिक न्याय का जातीयकरण कर दिया है। इससे सामाजिक वैमनस्य और बढ़ा है।

डॉ. अंबेडकर जिस सामाजिक न्याय की बात कहते थे उसका सबसे कष्टदायक अध्याय यही है कि वोटों की राजनीति में लोकतंत्र और संविधान के विरुद्ध ही जातियों को लामबंद कर दिया है तथा 'जातीय आरक्षण' के कारण मानसिक स्तर पर अछूत प्रथा बढ़ी है। ऊपर से हम भले ही एकजुट दिखाई दें लेकिन भीतर से हम खंड-खंड जातीयता में फंस गए हैं। मेरा ऐसा भी अनुमान है कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों का वर्तमान संघर्ष ही देर-सवेर, भारतीय हिंदू समाज व्यवस्था के आधिपत्य और असमानता पर आधारित जीवनशैली को नया स्वरूप देगा। अमेरिका में बराक ओबामा का और दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला का उदय इसी परिवर्तन का परिणाम है कि लोकतंत्र और असमानता एक साथ नहीं चलती। जब तक भारत में अछूत जाति प्रथा रहेगी तब तक सामाजिक न्याय का बिगुल भी बजता ही रहेगा और आदिवासी जनजातियों के सपनों को सैनिक- अर्द्धसैनिक बलों की ताकत से और अल्पसंख्यकों की इच्छाओं को सांप्रदायिक नफरत की हिंसा से कभी नहीं कुचला जा सकेगा। 

हमें आज इस राजनीतिक धोखाघड़ी को भी समझना होगा कि भीमराव अंबेडकर किसी एक पार्टी के बंधक हैं। कांशीराम और मायावती की उत्तर प्रदेश में बहुजन की ओर सर्वजन की राजनीति का यह भेद इसीलिए अब टूट गया है कि लोकतंत्र में जातीय ध्रुवीकरण से अंबेडकर ही कमजोर हो रहे हैं। क्योंकि भारत की संपूर्ण आबादी में सवर्ण जातियों के विरुद्ध अनुसूचित जातियां, जनजातियां और अल्पसंख्यक विभाजित हैं। इसलिए अंबेडकर की जीत, समता और न्याय के संघर्ष में ही छिपी है तथा अकेली दलित जातियां ही हिंदू समाज व्यवस्था के चक्रव्यूह को कभी नहीं तोड़ पाएंगी। क्योंकि  सवर्णों के साम्राज्यवाद का विकल्प दलित साम्राज्यवाद का मायावती मॉडल कभी नहीं हो सकेगा।

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने हिंदू धर्म को छोड़ बौद्ध धर्म को इसलिए ग्रहण किया था बौद्ध धर्म का आधार ही न्याय, समता और स्वतंत्रता पर आधारित है और सबके उदय तथा सबके विकास की बात कहता है। असली हिंदुत्व का मूलमंत्र भी यही तो है कि सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामिया। भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार का राष्ट्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इसलिए एक हिंदू वितंडावाद है और डॉ. अंबेडकर ने भी इसलिए भारत के संविधान में धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीयता को लोकतंत्र के लिए अछूत प्रवृर्त्तियों का प्रेरक ही बताया था।

अतः डॉ. अंबेडकर की राजनीति समतामूलक भारत निर्माण की ऐसी रचनात्मक उद्घोषणा है जो जातीय-वर्ण व्यवस्थाओं को अस्वीकार करती है, क्योंकि सभ्य मनुष्य और सभ्य नागरिक होना ही आज के भारतीय समाज की पहली आवश्यकता है। मुझे विश्वास है कि आज यदि महर्षि मनु जीवित होते तो वह भी इस लोकतांत्रिक भारत के लिए कोई ऐसी नई 'मनुस्मृति' ही लिखते जो सबके सुख-समता और न्याय की कामना करती और जाति विहीन सामाजिक आर्थिक व्यवस्था की जयघोष करती। 

वेद व्यास