प्रतिनिधि वापसी के अधिकार का सवाल

 — नन्दकिशोर आचार्य —


एक बार लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इंदौर में दिये अपने वक्तव्य में इस बात का समर्थन किया कि मतदाताओं को यह अधिकार होना चाहिए कि वे अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुला सकें। इस वक्तव्य का महत्त्व इसलिए और भी बढ़ जाता है कि सोमनाथ चटर्जी न केवल लोकसभा के अध्यक्ष रहे बल्कि एक प्रखर मार्क्सवादी राजनीतिक और संविधानविद भी थे। उनके इस प्रस्ताव के पीछे मूल तर्क यही था कि जन-प्रतिनिधि अकसर अपने प्रतिनिधि होने के कारण आयद जिम्मेदारी को भूल जाते हैं।

यह ठीक है कि दुबारा चुनाव होने पर उन्हें मतदाताओं के सामने जाना पड़ता है और अपने कार्यकाल के बारे में सफाई देनी पड़ती है, लेकिन आम चुनावों के मौके पर कुछ देशव्यापी सवाल प्रमुखता हासिल कर लेते हैं। जिसके कारण किसी सांसद या विधायक की व्यक्तिगत जवाबदेही की बात पृष्ठभूमि में चली जाती है। दूसरे यह कि यदि अपनी खामियों के चलते वह चुनाव हार भी जाता है तो यह कोई दंड नहीं माना जा सकता और इससे उन कामों को अनहुआ नहीं किया जा सकता, जो एक सांसद या विधायक की हैसियत से उसने अपने कार्यकाल में किये होते हैं।

जनता को यह अधिकार होना चाहिए कि यदि उसका प्रतिनिधि किसी भी मामले में उसकी राय या हित के खिलाफ आचरण करता है तो उसे तत्काल वापस बुलाकर अपने हित या मत की रक्षा कर सके।

चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार का प्रस्ताव भारतीय राजनीति में पहले भी विचारार्थ रखा जाता रहा है। सबसे पहले यह बात एमएन राय ने रखी थी। उनके प्रस्ताव के पीछे मूल तर्क यही था कि निर्वाचित व्यक्ति, दरअस्ल, जनता का नेता नहीं होता। वह केवल उसका प्रतिनिधि होता है। वास्तव में, एक लोकतंत्र में नेता की अवधारणा ही अधिनायकवादी प्रवृत्ति की पोषक हो जाती है। मतदाता अपनी संप्रभुता का अधिकार अपने निर्वाचित प्रतिनिधि को हस्तान्तरित करता है और उसके माध्यम से यह प्रभुसत्ता राज्य में समाहित होती है। यदि निर्वाचित प्रतिनिधि इस हस्तान्तरित संप्रभुता का इस्तेमाल उसके वास्तविक स्वामी की राय या हित के खिलाफ करने लग जाता है तो वह मतदाता का प्रतिनिधि होने का नैतिक अधिकार खो देता है- जिसका तात्पर्य है कि उसे इस नाते राज्य की संप्रभुता में हिस्सेदारी का अधिकार भी नहीं रहता।

इसे किसी लोकतांत्रिक संवैधानिकता का दोष ही माना जाना चाहिए कि उसमें राज्य की संप्रभुता में हिस्सेदारी का संवैधानिक अधिकार उन लोगों को भी होता है जो नैतिक दृष्टि से वह अधिकार खो चुके होते हैं।

लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक व्यवस्था नहीं है, उससे पहले वह एक नैतिक विकल्प है- कम-से-कम उपलब्ध राजनीतिक विकल्पों में सर्वाधिक नैतिक विकल्प। कोई भी संविधान तभी सही अर्थों में लोकतांत्रिक माना जा सकता है, जब वह अपनी पृष्ठभूमि में इस नैतिक संवेदन की प्रक्रिया को महसूस करता हो। नैतिकता संविधान की कसौटी होती है, संविधान को नैतिकता की कसौटी नहीं माना जा सकता। इसलिए किसी भी संविधान में यह व्यवस्था होनी चाहिए- और यदि नहीं है तो उसकी नैतिकता संदेहास्पद बनी रहती है- कि अपने मतदाताओं के प्रतिनिधि होने का नैतिक अधिकार खो चुके व्यक्ति को उसका संवैधानिक अधिकार भी नहीं रहे।

हमारा प्रतिनिधि, दरअस्ल, हमारा वकील होता है और जैसे अपने वकील को हम कभी भी हटाकर दूसरा वकील नियुक्त कर सकते हैं, उसी तरह हमें अपने निर्वाचित प्रतिनिधि को हटाकर दूसरा प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होना चाहिए।

आपातकाल से पहले गुजरात के नव-निर्माण आंदोलन और बाद में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार आंदोलन के दौरान जब इन राज्यों की विधानसभाओं को भंग कर दुबारा चुनाव करवाने की माँग की गयी थी तो उसके पीछे मुख्य तर्क यही था कि वे निर्वाचित होते हुए भी आंदोलनकर्ताओं की राय में जन-प्रतिनिधित्व का नैतिक अधिकार खो चुकी थीं। संविधान में निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने की कोई व्यवस्था न होने के कारण यह जरूरी हो गया था कि जनता अपने नैतिक अधिकार को प्राप्त करने के लिए आंदोलन का रास्ता अख्तियार करे।

इन आंदोलनों से भी पहले जब डॉ राममनोहर लोहिया कहते थे कि ‘जिन्दा कौमें पाँच साल तक इंतजार नहीं करतीं’ तो उसका मतलब यही था कि जनता को अपने नैतिक अधिकार की प्रतिष्ठा के लिए अगले आम चुनावों तक इंतजार करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। यह ठीक है कि हमारे यहाँ लोकसभा या विधानसभा का कार्यकाल पाँच वर्ष है, लेकिन संविधान के अंतर्गत उन्हें ऐसे अधिकार दिये गये हैं कि वे इस कार्यकाल में ऐसे निर्णय ले सकते हैं जिनका प्रभाव उनके कार्यकाल के समाप्त होने के बाद भी एक दीर्घ अवधि या हमेशा के लिए बना रहे।

आपातकाल में लोकसभा की कार्यावधि बढ़ा दी गयी थी और कम-से-कम संवैधानिक तौर पर कोई बाधा नहीं थी कि उसे और अधिक समय के लिए बढ़ाया जा सकता। आखिर किसी दौर में फ्रांस में नेपोलियन तृतीय को मतदान द्वारा ही पहले आजीवन राष्ट्रपति और फिर सम्राट बना दिया गया था। स्वयं हिटलर संवैधानिक प्रक्रियाओं को पूरा कर डिक्टेटर बना था। कई मुल्कों में तानाशाह अपने को संवैधानिक स्तर पर प्रतिष्ठित कर लेते हैं और इसके लिए संविधान में परिवर्तन-संशोधन कर लेते हैं।

स्पष्ट है कि जो संविधान संप्रभुता की लोकतांत्रिक नैतिकता की अवहेलना या अतिक्रमण करते हैं, वे संविधान बने रहते हुए भी नैतिक नहीं कहला सकते और लोकतांत्रिक नैतिकता का केन्द्रीय आधार यही है कि किसी भी व्यक्ति को प्रतिनिधि होने के नाते आम मतदाता की संप्रभुता के अबाधित प्रयोग का अधिकार नहीं मिल सकता- एक निश्चित कार्यकाल के लिए भी नहीं। मतदाता की संप्रभुता सदैव मतदाता की है और उसका प्रतिनिधि भी उसका इस्तेमाल उसकी इच्छा के विरुद्ध नहीं कर सकता।

लेकिन निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार की माँग के नैतिक औचित्य को स्वीकार करने के बावजूद उसकी प्रक्रिया और व्यावहारिकता का सवाल बना रहता है।

एमएन राय ने इस अधिकार की बात करते हुए एक संगठित लोकतंत्र का प्रस्ताव दिया था – जिसे वे ‘स्थानीय गणतंत्रों की श्रृंखला’ कहते थे जिसमें संसद ‘देशव्यापी जन-समितियों के तंत्र के आधार पर निर्मित राज्य की पिरामिडाकार संरचना का शीर्ष’होगी और इस प्रकार राज्य एक ‘स्थायी लोकतांत्रिक नियंत्रण’ में रह सकेगा। इस व्यवस्था में जन-प्रतिनिधियों के प्रत्यक्ष चुनाव की जगह अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली की कल्पना की गयी है, जिसका परिणाम यह होता है कि बिना जनता के सीधे संपर्क में आए कोई भी व्यक्ति सर्वोच्च शासक हो सकता है। इसे भी लोकतंत्र के स्वास्थ्य और भविष्य के लिए उचित नहीं माना जा सकता। जयप्रकाश नारायण ने भी जन-प्रतिनिधियों पर नियंत्रण के लिए लोक-समितियों की एक श्रृंखला – स्थानीय से राष्ट्रीय स्तर तक की लोक-समितियों की रचना का प्रस्ताव दिया था। लेकिन इन लोक-समितियों की कोई संवैधानिक हैसियत नहीं हो सकती थी।

क्या कोई ऐसा रास्ता निकाला जा सकता है कि सांसद या विधायक के चुनाव के साथ ही चुनाव-क्षेत्र के अनुसार ऐसी लोक-समिति के चुनाव की भी संवैधानिक व्यवस्था हो सके जिसका काम अपने प्रतिनिधि के काम की देख-रेख करना हो, लेकिन जिसके सदस्यों के लिए यह अनिवार्य हो कि वे न तो किसी राजनीतिक दल के सदस्य होंगे और न राज्य की निर्णय-प्रक्रियाओं में प्रत्यक्षतः भागीदार होंगे? यदि इस समिति के सदस्यों का बहुमत यह तय करता है कि उनका प्रतिनिधि किसी भी मामले में उनकी राय या हित के खिलाफ काम कर रहा है तो उसे वापस बुलाया जा सकता है- लेकिन यदि दुबारा चुनाव होने पर उसी व्यक्ति को उस क्षेत्र के मतदाता दुबारा चुन लेते हैं तो वह लोक-समिति स्वयमेव भंग समझी जाएगी।

दरअस्ल, इस माँग के नैतिक औचित्य को मान लेने पर हमारे संविधानविदों  और राजनीतिशास्त्रियों का यह दायित्व बनता है कि वे इस माँग को व्यावहारिक रूप देने की विविध प्रक्रियाओं पर विचार करें और ऐसा कोई हल सुझाएँ जो व्यावहारिक भी हो और नैतिक भी।