आजादी अमृत महोत्सव : सरकार, समाज व संवैधानिक संस्थानो के लिए आत्मचिंतन का सुअवसर !!

लेखक: सीए सी एल  यादव

देश की आजादी को 74 वर्ष हो चुके है व 75वे वर्ष मे प्रवेश कर चुके है। पुरे साल को देश 'अमृत महोत्सव ' के रूप मे मना रहा है। इस अवसर पर सभी महान वीर शहीदो व स्वतन्त्रता सेनानियो को बारम्बार नमन व भावपूर्ण श्रद्धांजली । 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ था तो हम को सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता मिली थी, उस वक्त बहुत सी दुसरी पराधीनताए व चुनौतियां मुह बाहें खडी थी उनसे भी हमको आजादी पानी थी। समय के साथ हमारे नीति निर्माताओ की मजबूत लोकतंत्र, समग्र विकास, समन्वय व सौहार्द से भरपूर दूरदर्शी सोच के कारण देश, प्रगर्ति के पथ पर आगे बढता गया।

संविधान बना, संस्थान बने, बांध, नहरे बनी, कल कारखाने स्थापित हुए। परिणामतः भारतवर्ष चहुमुखी विकास करते हुए, प्रगति के पथ पर आगे बढ रहा है,नये कीर्तिमान स्थापित करते हुए विश्व का सबसे मजबूत व सफल लोकतंत्र साबित हुआ व उन तमाम अशंकाओ को निर्मूल साबित करता चला गया,जो कि आजादी के समय देश की एकता, अखण्डता, भाईचारे, सौहार्द, समन्वय के साथ-2 अपने आप को एक मजबूत लोकतन्त्र के रूप मे स्थापित करने को लेकर प्रगट की जा रही थी।

समय चक्र चलता गया देश आगे बढता गया समाजवाद से आर्थिक समाजवाद व उसके बाद अब हम एक खुली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर बढ रहा है, जहां सरकारी उपक्रमो का निजिकरण किया जा रहा है, "न्युनतम शासन, अधिकतम सुशासन( मिनिमम गाॅवरमेंट, मैक्सिमम गवर्नेस)" की बाते हो रही है। ये सब वर्तमान वैश्विक परिदृश्य मे अपरिहार्य भी है वरना हम आर्थिक विकास व विश्व प्रतिस्पर्धा मे कही न कही पिछडे साबित हो सकते है,ऐसा बचाव मे कहा भी जा रहा है।

लेकिन इन तमाम सफलताओं, उपलब्धियो के बाबजूद, सवाल उठते है कि जो वैश्विक परिदृश्य लगातार बदल रहे है, इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी के इस युग मे जहां पुरा विश्व एक गांव मे तब्दील हो रहा है, बडी वैश्विक कम्पनियो का वर्चस्व उत्तरोत्तर बढता जा रहा है,आम भारतीय जनमानस मे पुरानी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की यादे स्मृति पटल पर उभर रही है।

इन बदलते हालातो को देखकर व समझकर कुछ सवाल कौंधते है।इससे पहले कि कुछ सवाल,पाठको के साथ साझा करू, मै सम्मानित पाठको को  माननीय मद्रास उच्च न्यायालय के आयकर से सम्बंधित हाल ही के बहुत ही महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों को  सन्दर्भित करना चाहूगा। एक निर्णय जो आयकर की धारा 276सी के सन्दर्भ मे है,जिसमे करदाता की रिट को स्वीकार करते हुए माननीय न्यायालय ने कहा है कि कोई भी कार्यवाही, वैधानिक क्षेत्राधिकार वाला कर निर्धारण अधिकारी (एओ) ही कर सकता है वो भी सिर्फ ठोस सबुतो के आधार पर। यदि कोई प्रॉसिक्यूशन की कार्यवाही बिना ठोस सबुतो के, सिर्फ फौरी व झुठे तथ्यो के  आधार पर की गई है तो ऐसी कोई भी कार्यवाही न तो उचित है व न ही वैध।

इसी प्रकार एक अन्य मामले मे माननीय न्यायालय ने माना कि " करनिर्धारण की प्रक्रिया मे करदाता को उचित सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए व कोई भी सुनवाई का अवसर दिखावटी नही बल्कि "मीनिंगफूल व रीजनेबल" होना चाहिए"।

ऐसे मामले जिनमे कार्यपालिका को, अपने अधिकारो का बैजा इस्तेमाल, क्षेत्राधिकार के बाहर जाकर बदले व दबाब अवांछित व इकतरफा कार्यवाईया बहुतायत मे देखी जाती है।

इन हालातो मे, जो साधन सम्पन्न व प्रभावशाली लोग होते है वो या तो अपने प्रभाव से या न्यायालयो के माध्यम से इस प्रकार की एक तरफा कार्यवाहियो से बच जाते है, लेकिन आम व गरीब जनता का तो अधिकारियो व न्यायालयो के दरवाजो पर, न्याय की गुहार व उम्मीद मे ही चक्कर लगाते-2 जीवन गुजर जाता है, यहां तक कि पीढियो तक को इस प्रकार के दंश झेलने पडते है।

आज न्यायालयो मे जो मुकदमो के अम्बार लगे हुए है, उच्च न्यायालयो तक मे प्रयाप्त न्यायाधीश नही है, उच्च न्यायालयो मे 400 से अधिक पद खाली पडे है।जिस प्रकार विभिन्न ट्रिब्यूनलस् व अपीलेट ट्रिब्यूनलस् को समाप्त किया जा रहा है, ट्रिब्यूनल्स मे खाली पदो को समय पर भरा नही जा रहा है। बार बार  शीर्ष  न्यायालय चेतावनी दे रहा है। उस से हालातो की भयावता को समझा जा सकता है। नीचे के स्तर पर तो हालात और भी बडे विकट व भयावह है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय कई बार टिप्पणी कर चुके कि "जस्टिस डिलेयड मीन जस्टिस डिनाइड"। लेकिन हालात वो ही ढाक के तीन पात। न किसी को कंटेम्पट ऑप कोर्ट की प्रवाह होती है न ही इनकी अन्तरात्मा कचोटती है।

अभी हाल ही मे माननीय सर्वोच्च न्यायालय पुलिस कार्यपालिका व प्रशासन की कार्यप्रणाली को लेकर कडी टिप्पणी की है व फटकारा लगाई है, लेकिन परिणाम वो ही ढाक के तीन पात वाले।

आज देश आजादी की 75वे वर्ष को  "अमृत महोत्सव" के रूप मे मना रहा है, महोत्सव कि सार्थकता भी कसौटी पर कसी ही जायेगी।

आज देश, संवैधानिक संस्थाओ, प्रबुद्ध नागरिको व समाज के सामने, संवैधानिक संस्थाओ की स्वायत्तता, संवैधानिक अधिकारो की रक्षा, लोकतान्त्रिक व्यवस्था का सुदृढकरण, मिनिमम गाॅवरमेंट- मैक्सिमम गवर्नेस, ईज ऑफ डुईग बिजनेस, सुशासन, इंस्पेक्टर राज, करदाता-कर व्यवहारियो का हरैशमेन्ट, आधारभूत संस्थापन के बिगडते हालात बडी चुनौति है, तो

क्या इन हालातो मे संवैधानिक व न्यायिक संस्थाए तठस्थ व संवैधानिक दायरे मे, बिना किसी दबाब, प्रलोभन, भेदभाव के अपने संवैधानिक, मानवीय व सामाजिक दायित्वो का निर्वहन पूर्ण स्वतन्त्रता से कर पा रही है?

क्या संवैधानिक, न्यायिक व प्रशासनिक तंत्र देश व समाज के प्रति अपनी संवैधानिक व मानवीय  एकांटिबिलिटी व रेशपोन्सिबिलिटी का प्राथमिकता से निर्वहन कर पा रहे है?

क्या हालात, "प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत" की प्रतिपालना "समय पर न्याय" व "न्याय की तटस्थता" पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे है?

क्या शीर्ष संवैधानिक, प्रशासनिक व न्यायिक पदो को सुशोभित कर चुके माननीय राजनीतिक महत्वकांक्षा से विरक्त कर पायेंगे?? 

अन्त मे क्या देश की 135 करोड जनता अपने संवैधानिक व सामाजिक दायित्वो व कर्त्तव्यों के प्रति सजग व जागरूक है? क्या वो अपने संवैधानिक व सामाजिक दायित्वो व कर्तव्यो का पुरी सजगता व ईमानदारी के साथ निर्वहन कर पा रहे है ?

क्या संविधान व समाज का प्रत्येक स्तंभ अपने दायित्वो व कर्तव्यों के प्रति सजग है, सावचेत है व आत्मचिंतन कर रहा है??