भ्रष्टाचार की आधार शिलाएं


भ्रष्टाचार की जडे जितनी मानसिक वृत्तियों में फैली हुई है उतनी आवश्यकताओं में नहीं। अणुव्रत प्रवर्तक आचार्य तुलसी के अनुसार पद पर सत्ता का अधिकार करने, सुख सुविधापूर्ण जीवन बिताने, प्रकाश में आने, बडा बनने और अनुकरण करने की मनोवृत्ति हर सामान्य व्यक्ति में होती है और यह संग्रहण व भ्रष्टाचार की जननी है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के अनुसार जब चयनकर्ता ही बेईमान हो, चयन संबंधी संस्थाओं में ही भ्रष्टाचार हो तो चयनीत तो बेईमान व भ्रष्ट होगा ही। 

वर्तमान स्थितियों के अनुसार भ्रष्टाचार बढ रहा है, केवल यह एक आवाज प्रबल है परन्तु उतने प्रबल उसे मिटाने के प्रयत्न नहीं है। हम अवांछनीय समस्या की रट लगाते है किन्तु उसे सुलझाने का प्रयत्न नहीं करते। जो कुछ प्रयत्न होते है उसकी सराहना करने के बजाय टीका टिप्पणी करते है। शासन द्वारा उठाये गये कदमों की अपर्याप्ता का बखान करते रहते है। हम परिणाम को मिटाना चाहते है, उसके कारणों को नहीं।

पारदर्शिता अन्र्तराष्ट्रीय के अनुसार भ्रष्टतम देशों की सूची में भारत का स्थान 2007 में 72वां तथा 2008 में 85वां और अब 94 पंहुच गया है। भारतीय पुलिस व राजस्व विभाग में सर्वाधिक भ्रष्टाचार और स्कूल शिक्षा विभाग में सबसे कम है। छोटी-छोटी रकम के तौर पर जो रिश्वत कार्य करने के लिए दी जाती है उसकी राशि साल में हजारों करोड हो जाती है। आंकडों के अनुसार केरल, हिमाचल, गुजरात क्रमशः सबसे कम भ्रष्ट राज्य है तो बिहार, जम्मू कश्मीर और मध्यप्रदेश सर्वाधिक भ्रष्ट राज्य है। भ्रष्टाचार के कारण अनेक है, संक्षेप में राष्ट्र प्रेम का अभाव, धन-लोलूपता, सत्ता व पद की लोलूपता, प्रशासन कौशल का अभाव, सामाजिक रूढिया, गरीबी, मंहगाई, अपव्यय, नियुक्तियों में बरती जाने वाली पक्षपातपूर्ण/भ्रष्टाचार एक परिणाम है, वह तब तक नहीं मिट सकता जब तक उसके कारण विद्यमान है। भ्रष्टाचार के कारणों को मिटाने का प्रयत्न किया जाये तब ही मिटाने की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है।

सामुदायिक जीवन के प्रति निष्ठा, अनुशासनहीनता, नैतिक शिक्षा का अभाव, नियंत्रण/कंट्रोल का अभाव, पक्षपातपूर्ण नीतियां व फेसले, अस्पष्ट नियम कायदे, अपराध व मनचाहे फैसलों, फैसलों में विलम्ब, नियम कायदो की अस्पष्टता, अपराध पर तुरंत दण्डित नहीं किया जाना और उत्कृष्ट कार्यो, ईमानदारों/कर्तव्यपालन पर समुचित मान्यता, पुरस्कार, प्रशंसा नहीं मिलना ऐसे कारण है जो भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करते है।

आचार्य तुलसी के अनुसार अनुशासन सुधार का मूल बीज है। अनुशासन के अभाव में सामाजिक जीवन के मूल्य नहीं रहते। अनुशासन चलाने वाले भी जब अनुशासन विहीन हो जाते है, व्यवस्था शिथिल हो जाती है, भंग हो जाती है, अकर्मण्यता व पक्षपात बढ जाता है। जाति, कुटुम्ब, मित्र पैसे की भावनाएं घर करती है, गहरी हो जाती है। संबंध प्रधान हो जाते है, व्यवस्था गौण हो जाती है, अनुशासन शिथिल हो जाता है, चाहे वे जनप्रतिनिधि, गैर सरकारी कर्मचारी या सरकारी कर्मचारी हो पक्षपात हर काम में होने लगता है। पद लोलूपता बढ जाती है। औचित्य, अनोचित्य की भावना के बजाय संरक्षण की भावना पैदा हो जाती है।

अस्पष्ट नियम कायदो से नियंत्रण की स्थिति पैदा होती है। काम करना छोटापन, न करना अथवा अवहेलना करना बडप्पन समझना तथा बडा आदमी वह है जो अधिक धनवान है, अधिकार संपन्न है, जो इच्छा अनिच्छा से कार्य करता है तो भ्रष्टाचार व पक्षपात बढेगा ही। सत्ता के प्रति आकर्षण, धन के प्रति आकर्षण व सुविधायें भ्रष्टाचार की मनोवृत्ति को बढाती है। धनी को सम्मान मिलता है, प्राथमिकता व रियायत मिलती है, गरीब को उसका वास्तविक दर्जा भी नहीं, महत्व नहीं तो भ्रष्टाचार बढता है। सामुदायिकता समाप्त हो रही है, व्यक्तिकता प्रमुख हो रही है। व्यक्ति हित में निर्णय होते है, सामुदायिक हित के मामलों में देरी व टालमटोल। जब जन की चिन्ता समाप्त हो जाती है तो लालसा व भ्रष्टाचार बढता है। अमीर अधिक अमीर बनने के लिए व गरीब अस्तित्व के लिए घूंस देता है।

सरकार भी असमानता बढा रही है। मंहगाई, गरीबी, कानूनी उलझने, नियंत्रण आदि समस्याओं का निवारण नहीं करती। इस अवांछनीय परिस्थिति को सख्त सरकारी व सामूहिक प्रयत्नों से ही समाप्त किया जा सकता है। भ्रष्टाचार के कारणों को मिटाने को नियमित सख्ती व प्रयत्न किये जायें। नियम कायदों को सरल कर, व्यक्तिगत दृष्टिकोण से फैसला लेने की प्रवृत्ति को समाप्त कर भ्रष्टाचारी को तुरंत सख्त दण्डित कर व साफ सुथरों को प्रोत्साहित कर एक स्वच्छ, पारदर्शी, सुशासन हेतु निरन्त प्रयास आवश्यक है। केवल जुबानी घोषणाओं से नहीं, स्पष्ट व अप्रत्यक्ष प्रयत्नों से, दृष्टांतों से आम लोगों से संकल्प ले कि ‘‘मैं रिश्वत नहीं दूंगा चाहे जो कुछ हो जाये’’ यह सार्थक कदम होगा। विलियन सेक्सपियर ने कहा था कि सफलता के तीन मंत्र है, दूसरों से ज्यादा जानकारी प्राप्त करो, दूसरों से ज्यादा मेहनत करो और दूसरो की अपेक्षा कम उम्मीद करों। 

डाॅ. सत्यनारायण सिंह   आई.ए.एस. (आर.)