प्रियदर्शिनी इंदिरा गांधी : त्याग, बलिदान, साहस

लेखक : अर्चना पाठ्या 
(गांधी विचारक,समाजसेवी,लेखक,सम्पादक संस्थापक अध्यक्ष, आदित्य फाउंडेशन)

इंदिरा गाँधी को सिर्फ़ इस कारण नहीं जाना जाता कि वह पंडित जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं, बल्कि इंदिरा गाँधी अपनी प्रतिभा और राजनीतिक दृढ़ता के लिए 'विश्वराजनीति' के इतिहास में जानी जाती हैं और उनको 'लौह-महिला' के नाम से संबोधित किया जाता है। ये भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री थीं।

पंडित नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बनाए गए। उन्होंने कांग्रेस संगठन में इंदिरा जी के साथ मिलकर कार्य किया था। शास्त्रीजी ने उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय सौंपा। अपने इस नए दायित्व का निर्वहन भी इंदिराजी ने कुशलता के साथ किया। यह ज़माना आकाशवाणी का था और दूरदर्शन उस समय भारत में नहीं आया था। इंदिरा गाँधी ने आकाशवाणी के कार्यक्रमों में फेरबदल करते हुए उसे मनोरंजन बनाया तथा उसमें गुणात्मक अभिवृद्धि की। 1965 में जब भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ तो आकाशवाणी का नेटवर्क इतना मुखर था कि समस्त भारत उसकी आवाज़ के कारण एकजुट हो गया। इस युद्ध के दौरान आकाशवाणी का ऐसा उपयोग हुआ कि लोग राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत हो उठे। भारत की जनता ने यह प्रदर्शित किया कि संकट के समय वे सब एकजुट हैं और राष्ट्र के लिए तन-मन धन अर्पण करने को तैयार हैं। राष्ट्रभक्ति का ऐसा जज़्बा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देखने को प्राप्त हुआ था। इंदिरा गाँधी ने युद्ध के समय सीमाओं पर जवानों के बीच रहते हुए उनके मनोबल को भी ऊंचा उठाया जबकि इसमें उनकी ज़िंदगी को भारी ख़तरा था। कश्मीर के युद्धग्रस्त क्षेत्रों में जाकर जिस प्रकार उन्होंने भारतीय सैंनिकों का मनोबल ऊंचा किया, उससे यह ज़ाहिर हो गया कि उनमें नेतृत्व के वही गुण हैं जो पंडित नेहरू में थे। 

इंदिरा की आयु मात्र बारह तेरह वर्ष की ही थी कि उसके नन्हें से दिल मैं हिन्दुस्तानियो का अपमान देख सुनकर रोष की आग जल उठी, और उसने छोटे छोटे बच्चों को इकठ्ठा करके एक सेना का निर्माण किया। बच्चों के बालसुलभ क्रियाकलापों को देखते हुए माता कमला देवी ने सेना को “वानर सेना” नाम दे दिया। राजनीतिक गतिविधियों के दौरान युवा इंदिरा की मुलाकात कांग्रेस के ही आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी श्री फिरोज गांधी से हुई। जल्दी ही दोनों ने शादी का निर्णय ले लिया, परंतु शादी के कुछ दिन बाद ही नवदंपति को जेल जाना पडा। यही से उनके जीवन संघर्ष की महान शुरुआत हुई। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस अवसर पर कहा था कि, “यदि जीवन का आनंद लेना है तो उसके लिए चुकाई जाने वाली कीमत की परवाह मत करो”। 

पिता की दुलारी इंदु अब लोगों के बीच श्रीमती इंदिरा गांधी के रूप में जानी जाने लगी। 2 फरवरी को 41 की उम्र में इंदिरा कांग्रेस अध्यक्ष चुन ली गईं| अकस्मात ही श्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन पर देश के सामने एक बार फिर यह समस्या आई की देश की बागडोर किसे सौंपी जाए। किसी एक नाम पर एकमत न होने पर श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री मोरारजी देसाई के मध्य चुनाव की नौबत आ गई। इस चुनाव में श्रीमती गांधी को 355 तथा श्री देसाई को 169 मत प्राप्त हुए। और इस प्रकार उन्हें देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ। प्रधानमंत्री पद सभांलते ही उनके सामने परेशानियों का दौर आरंभ हो गया। सन् 1971 का मध्यावधि चुनाव उनके नेतृत्व के लिए एक कसौटी था। विरोधी पक्ष एक जुट होकर “इंदिरा हटाओ” अभियान में लगे हुए थे। तब इंदिरा जी ने “गरीबी हटाओ” का नारा देकर जनता को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। इस प्रकार जनता का अटूट विश्वास जो पंडित नेहरू को प्राप्त था। उससे भी एक कदम आगे बढकर जनता ने इंदिरा जी को अपना विश्वास दे दिया। उन्हीं दिनो 9 अगस्त सन् 1971 को राष्ट्रहित मे उन्होंने सोवियत रूस से 20 वर्षीय मैत्री संधि करके भारतीय जनता को बाहरी खतरो से आश्वस्त कर दिया। यही समय था जब दुनिया के सामने बंगलादेश का प्रश्न आया। पाकिस्तानी शासको की नीति और बर्बरता पूर्ण अत्याचार के कारण लाखो की संख्या में उस वक्त के पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) को छोडकर शरणार्थी भारत आए। इस से भारत का अर्थतंत्र लडखडाने लगा। लाखो शर्णार्थियों पर नृशंस अत्याचारों से देश मूकदर्शक बनकर न बैठ सका, इससे श्रीमती गांधी का नारी ह्रदय पसीज उठा। जब शांति और राजनीतिक समाधान के सारे प्रयत्न विफल हो गए। और भारत द्वारा बंगलादेश की मुक्तिवाहिनी से सहानुभूति को देखकर पाकिस्तान चिढ़ गया। इसी चिढ़ मे उसने भारत पर आक्रमण कर दिया। चौदह दिन तक चले भारत पाक युद्ध में भारत की ऐतिहासिक विजय ने श्रीमती गांधी की शक्ति और दूरदर्शिता पर अपनी अमिट छाप लगा दी। भारत के हाथो जहाँ पाकिस्तान की हार हुई, वही बंगलादेश के रूप में एक नए राष्ट्र का निर्माण भी हुआ। विश्व के बडे बडे राजनेता यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हो गए, कि श्रीमती गांधी मे अदम्य साहस है, और चुनौतियों का सामना करने की अभूतपूर्व क्षमता भी है।

28 जून सन् 1972 को शिमला मे भारत और पाकिस्तान के मध्य ऐतिहासिक शिमला समझोता हुआ और श्रीमती गांधी एवं तत्कालीन पाक राष्ट्रपति श्री भुट्टो मे परस्पर मैत्री का हाथ बढा। इसी बीच देश मे विरोधी तत्वों ने अराजकता एवं अशांति फैलाने के प्रयास आरंभ कर दिए। देश की राजनीति एक अजीब सी स्थिति मे फंस गई। देश के आंतरिक संकट पर काबू पाने के लिए 25 जून सन् 1975 को उन्होंने देश मे आपातकालीन घोषणा लागू कर दी, और देश को एक बीस सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम दिया, जिसके फलस्वरूप देश मे पुनः प्रगति और खुशहाली का दौर शुरू हो गया। सन् 1977 के चुनावों मे वह समय आया जब उन्हें अपनी हार का करारा झटका लगा। उनके विरुद्ध अनेक आयोग बिठा दिए, किंतु इंदिरा जी ने मुस्कराहट के साथ समस्त बाधाओं का सामना किया। अपनी कटु आलोचना तक का इंदिरा गांधी जी ने हास्य एवं मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया। अपनी राजनीतिक सूझबूझ का परिचय देते हुए उन्होंने “जनता सरकार” को समय से पूर्व ही हटने को बाध्य कर दिया, सन् 1980 मे मध्यावधि चुनावों की घोषणा का जनता ने स्वागत किया। जनता को अपनी पिछली भूल का अहसास हो गया था। इस चुनाव मे श्रीमती गांधी भारी विजय प्राप्त कर पुनः प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हो गई। इंदिरा जी का चौथी बार प्रधानमंत्री बनना एक चमत्कारी घटना है। एक राष्ट्रनेता या राष्ट्र निर्माता के जीवन मे तो यह भावना एक अनिवार्य व्यवहार की तरह होती है। श्रीमती गांधी इस व्यवहार मे बिल्कुल खरी उतरी।

इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व और कार्यकुशलता को देखकर दुनिया के बडे बडे राजनीतिज्ञ दंग रह गए। 1982 मे नवम एशियाई खेल श्रीमती गांधी के दृढ़ निश्चय के कारण ही संभव हो सके। खेलकूद के सबसे बडे ओलंपिक स्वर्णाहार से सम्मानित होने वाली श्रीमती गांधी न केवल भारत की वरन् विश्व की सर्वप्रथम महिला है। निःसंदेह यह भारत के लिए बडे गर्व की बात है। 23 जून, 1980 को प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के छोटे पुत्र संजय गाँधी की वायुयान दुर्घटना में मृत्यु हो गई। संजय की मृत्यु ने इंदिरा गाँधी को तोड़कर रख दिया। इस हादसे से वह स्वयं को संभाल नहीं पा रही थीं। तब राजीव गाँधी ने पायलेट की नौकरी छोड़कर संजय गाँधी की कमी पूरी करने का प्रयास किया। लेकिन राजीव गाँधी ने यह फैसला हृदय से नहीं किया था। इसका कारण यह था कि उन्हें राजनीति के दांवपेच नहीं आते थे। जब इंदिरा गाँधी की दोबारा वापसी हुई तब देश में अस्थिरता का माहौल उत्पन्न होने लगा। कश्मीर, असम और पंजाब आतंकवाद की आग में झुलस रहे थे। दक्षिण भारत में भी सांप्रदायिक दंगों का माहौल पैदा होने लगा था। दुर्भाग्य से देश में अराजकता फैलाने वाले तत्व कभी धर्म के नाम पर तो कभी क्षेत्रीयता की भावना भड़काकर अशांति पैदा करने की कोशिश करते रहे है। असम और पंजाब समस्या उन्हीं की देन है। इंदिरा जी असम समस्या को शांत कर थोड़ा दम भी न ले पाई थी कि पंजाब मे उग्रवादियों के माध्यम से इन तत्वों ने अशांति पैदा करने का प्रयत्न किया। पंजाब में दिन प्रतिदिन हत्याओं का सिलसिला जारी होने लगा। 

1983 के दिल्ली शिखर सम्मेलन में लगभग 101 देशों के राष्ट्रीय अध्यक्ष शामिल होने आए। और उन्होंने श्रीमती गांधी को गुट निरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व सौंपा। इस प्रकार श्रीमती गांधी दुनिया का नेतृत्व करने वाली तीसरी महान शक्ति बन गई। नेशनल इंटीग्रेशन असेंबली मे अंतर्राष्ट्रीय सूझबूझ और मानवाधिकारो के लिए की गई सेवाओं के लिए उन्हें 82-83 की सर्वश्रेष्ठ महिला चुना गया। इन्हीं उपलब्धियों के कारण उन्हें भारत के सर्वोच्च अलंकरण “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया। नीदरलैंड सरकार ने उन्हें 1983 मे एशियाई विभूति से भी सम्मानित किया।

3 जून सन् 1984 को पंजाब मे “आपरेशन ब्लू स्टार” के माध्यम से सैनिक कार्यवाही करके विदेशी ताकतों के अरमानों को उन्होंने खंडित कर दिया। इसके बाद पंजाब में पुनः शांति सद्भावना का वातावरण बन गया। 30 अक्टूबर सन् 1984 को उडीसा की दो दिन की यात्रा मे श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने सार्वजनिक सभा मैं कहा था कि– “अगर देश की खातिर मेरी जान भी चली जाए तो मुझे गर्व होगा, मुझे चिंता नहीं कि मैं जीवित रहूं या न रहूं, जब तक सांस है तब तक मैं देश की सेवा करती रहूंगी। जब भी मेरी जान जाएगी, मेरे खून का एक एक कतरा भारत को मजबूती देगा और अखंड भारत को जीवित रखेगा”। उन्हें इसका ज्ञान भी न था कि आतंकवाद उनके इस कथन के अगले ही दिन अर्थात 31 अक्टूबर सन् 1984 को उन्हें लील लेगा। प्रातः लगभग सवा नौ बजे श्रीमती गांधी सफदरजंग वाले अपने बंगले की ओर जा रही थी, जहां वीडियो फिल्म बनाने वाली एक आयरिश टीम के साथ उनका इंटरव्यू होना था। बंगले के बीच दरवाजा पार करके जब वे संकरी पगडण्डी पर चल रही थी कि तभी पगडण्डी के दोनो तरफ पेड और झाडिय़ों से सटे दो सुरक्षा कर्मियो ने दनादन गोलियां दागकर उन्हें छलनी कर दिया। एकाएक घटनाक्रम इतनी तीव्र गति से हुआ कि एक पुरे युग का दर्दनाक अंत हो गया। इंदिरा जी ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि जिसे वह अपने परिवार के सदस्य के समान मानती है, और जिसकी वफादारी की प्रशंसा किया करती है वही विश्वास पात्र सुरक्षा गार्ड अपने अन्य सहयोगी के साथ सौ गज की दूरी पर काल के रुप मे खडा होगा। हर संभव प्रयासों के बाद भी डाक्टर उनका अमूल्य जीवन बचाने मे असफल रहे, और उन्हें निराशा के शिवाय कुछ हाथ नही लगा। उनकी हत्या की खबर सुनकर सारे देश मे शोक व्याप्त हो गया, हर चेहरा उदास हो गया और प्रत्येक आंख नम हो गई, क्योंकि देश की राजनीति पर लगभग दो दशक तक छाया रहने वाला व्यक्तित्व देश से छिन गया था। स्व. प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के जयेष्ठ पुत्र श्री राजीव गांधी उस समय पश्चिम बंगाल की यात्रा पर थे, यह दुखद समाचार मिलते ही वे अपनी यात्रा अधूरी छोड कर नई दिल्ली पहुंच गए। प्रधानमंत्री की निर्मम हत्या का समाचार सुनकर देश मे रोष की लहर फैल गई, देश की जनता गुस्से से भडक उठी। लोग नारे लगा रहे थे– गद्दारो को मार दो, खून का बदला खून से लो, और फिर आसूओ मे डूबी आखों से खून टपकने लगा और दिल्ली ही नही वरन् सारा देश जलने लगा। देश के सभी हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे भडक उठे। जनता बेकाबू हो गई। नए प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के फौरन बाद देशवासियों के नाम विशेष संदेश प्रसारित करते हुए देशवासियों से शांति कायम रखने तथा अधिकतम संयम से काम लेने की अपील की। 

वह ज्योतिपुंज जो इलाहाबाद के आनंद भवन मे उदित हुआ था, भारत की एक महान विभूति के रूप मे उभरकर पुनः ज्योति मे समा गया। श्रीमती इंदिरा गांधी स्वंय को पहाडो की बेटी कहा करती थी। उनकी इच्छा के अनुकूल उनकी अस्थियां और भस्म हिमालय की ऊंची श्रृंखलाओ पर विसर्जित कर दी गई, शेष अस्थिकलश देश के सभी भागो मे ले जाकर पवित्र स्थानों मे विसर्जित किए गए, इस प्रकार उनकी अंतिम भौतिक यात्रा पूरी हुई। 

इंदिरा प्रियदर्शनी गाँधी न केवल भारतीय राजनीति पर छाई रहीं बल्कि विश्व राजनीति के क्षितिज पर भी वे एक प्रभाव छोड़ गईं।