जाति नहीं,जातिवाद बुरा होता है ; छुरी नहीं, छुरी घोंपने का ईरादा बुरा होता है


जाति एक कटु सत्य है,इसीलिए कहा गया है कि 'जाति, जो कभी नहीं जाती' ।

जाति को, आवश्यकता से अधिक गंभीरता से लेने की, कोई आवश्यकता नहीं होती है । यह मोटे तौर पर सामाजिक योजनाओं को लागू करने में वर्गीकरण के एक माध्यम से अधिक कुछ नहीं है ।
कर्म प्रधान रूप में जाति के मानकों की स्थापना हुई और कतिपय लोगों के पारिवारिक व सत्ता के मोह ने इसे कब जन्म प्रधान बना दिया पता ही नहीं चला।
आधार कोई भी माना जाए कर्मप्रधानता या जन्मप्रधानता; 'जाति' अपने आप में बुरी नहीं होती है।
हमारा मानना है कि जाति नहीं जातिवाद बुरा है, ठीक उसी तरह जैसे परिवार नहीं परिवारवाद गलत होता है,सम्प्रदाय नहीं सम्प्रदाय वाद गलत होता है,भाषा नहीं भाषावाद गलत होता है, क्षेत्र नहीं क्षेत्रवाद गलत होता है।
किसी भी धारणा में 'वाद' शब्द के जुड़ते ही वह धारणा जहरीली बन जाती है,
क्योंकि ऐसी धारणा केवल स्वयं पर गर्व करने और अन्य धारणाओं से नफ़रत करने के भाव को ना सिर्फ प्रसारित करती है वरन् उसे पोषित भी करती है ।
वाद युक्त धारणा ; न्याय पर अन्याय की प्रतिष्ठा कर देती है, वो भी इस हद तक कि उस वाद युक्त धारणा के अंध समर्थको के मन से अपराध बोध खत्म हो जाता है और उनकी आंखो पर पड़े गर्व के चश्में से उन्हें अन्याय ही न्याय नज़र आने लगता है ।
ध्यान रहे; जाति—प्रेम,परिवार—प्रेम,सम्प्रदाय—प्रेम,भाषा—प्रेम,क्षेत्र—प्रेम व राष्ट्र—प्रेम आदि सहज स्वीकार्य व सर्व स्वीकार्य निजी भावनाएँ हैं
लेकिन जब इन भावनाओं में शामिल 'प्रेम' शब्द को 'वाद' से रिप्लेस कर दिया जाता है और उन्हें जातिवाद,परिवारवाद,सम्प्रदायवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद व राष्ट्रवाद रूपी आत्मघाती हथियार में बदल दिया जाता है तो पूरे समाज में ज़हर घुल जाता है,समाज की शांतिभंग हो जाती है,समाज दिशाभ्रमित व किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाता है ।
अत: ​यदि आप और हम सभ्य समाज का अस्तित्व मिटाना नहीं चाहते हैं तो कृपया 'अपराधी' को 'अपराधी' ही रहने दें, मूर्खतावश या स्वार्थवश उसे जाति या धर्म का कवच कदापि ना पहनाएं , अन्यथा उस कवच को पहनकर वो अपराधी बेखौफ हो जाएगा ।
वो अपराधी पहले अन्य जाति व धर्मों के साथ अन्याय करेगा और एक दिन वो उसी जाति व धर्म के लोगों के लिए भस्मासुर बन जाएगा जिसने कि उस अपराधी को अपने समर्थन का अभेद्य कवच प्रदान किया था ।
विदित हो कि अपराधी के लिए जाति या धर्म आदि नारों की कीमत अपने पापों को छुपाने व सज़ा से बचने के लिए इस्तमाल किए जाने वाले आवरण से अधिक कुछ नहीं होती है।
याद रहे किसी भी आधार पर आधारित 'वाद' का समर्थन,केवल विवाद पैदा कर सकता है 'विकास' कभी नहीं ।
शायद इसीलिए 'विकास' के जन्म की भीषण उद्घोषणा के बावजूद आज तक देश विकास के पैदा होने का सिर्फ इंतजार ही कर रहा है, और यदि हमने अपनी सोच अब भी नहीं बदली तो शायद अनंतकाल तक विकास पैदा ही ना हो ।
हमारी राय में जाति सिर्फ दो हैं——स्त्री व पुरूष
तथा धर्म सिर्फ एक है--- इंसानियत ।
'इंसानियत' नामक इस धर्म का पालन सिर्फ, सदगुण अपनाकर किए गए सद्कर्मों के माध्यम से ही किया जा सकता है।
हमारी उक्त बातों से यदि कोई ​सहमत ना हो तो जातिवाद खत्म करने का हमारी नज़र में एक नायाब तरीका और भी है।
हम जानते हैं कि हमारा यह तरीका वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक परिपेक्ष्य में किसी भी राजनीतिक दल या सामाजिक समूह द्वारा शायद ही व्यावहारिक समझा जाए क्योंकि यदि इस तरीके को अपनाया जाता है तो जाति व धर्म के नाम पर नफ़रत के बीज बोकर, वोटों की जो फसल काटी जाती है उसका उत्पादन लगभग असम्भव या नगण्य हो जाएगा।
अत: राजनीतिक दलों व उनके समर्थकों से हमारे इस आइडिये को अपनाने की कोई झूठी उम्मीद ना रखते हुए हम अपने विचार का रफ प्रारूप सार्वजनिक रूप से साझा कर रहे हैं, विचार रफ है अत: इसमें सकारात्मक सुधारों का स्वागत रहेगा।
विचार इस प्रकार है——
यदि ​जातिगत व साम्रप्रदायिक पहचान देशहित में बाधक बन रही है तो केन्द्र सरकार पहल करे।
कानून बनाकर प्रत्येक भारतीय पर अपने नाम के साथ सरनेम लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए ।
इतना ही नहीं किसी के भी द्वारा,किसी भी परिस्थिति में सरनेम पूछने को कठोर दण्डनीय अपराध बनाया जाए।
सभी धर्मों,सम्प्रदायों,जातियों में प्रचलित नामों का एक डेटा बैंक बनाया जाए तथा देश के प्रत्येक नागरिक/बच्चों को आटोमैटेड सर्वर के माध्यम से रैंडमली कोई सा भी नाम का अलॉट कर दिया बिना कोई फर्क किए ।
सरनेम हटाने से जातिगत पहचान एवं नामों के रैंडमली अलाटमैंट से धार्मिक पहचान समाप्त हो जाएगी। परिणाम ये होगा कि कुछ ही दशकों में जातिवाद व सम्प्रदायवाद इतिहास बन जाएगा।
हाँ! आजकल भारत के कुछ गुणीजन लोगों को कपड़ों से भी पहचान लेते हैं, लेकिन उन्हें फिलहाल छोड़ दो, क्योंकि कपड़ो से पहचानने के लिए आमने—सामने आना पड़ता है, परन्तु नाम व सरनेम के प्रमाणिक दस्तावेजों को आधार बनाकर आवेदन—पत्रों एवं फाईलों के कागजों से भी लोगों को पहचाना जा सकता है और पहचाना जाता है, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष भेदभाव भी किया जाता है।
इतना ही इस डेटा बैंक के जरिए से कोई भी षड़यंत्रकारी बिना किसी के सामने आए सैकड़ों हजारों किलोमीटर दूर से एसी कमरे में बैठकर साफ्टवेयर के माध्यम से बड़ी ही आसानी से पूरे देश में षड़यंत्रपूर्वक कोई भी भ्रामक व घातक जानकारी फैला सकता है तथा लक्षित जाति या धर्म के खिलाफ नफ़रत के बीज बो सकता है,नफरत की फसल उगा सकता है और नफ़रत के पौधों से वोटों की फसल काट सकता है ।
हमारे विचार से जब जातिगत व धार्मिक पहचान ही लुप्त हो जाएगी तो जातिवादी व सम्प्रदायवादी भावनाएं भड़काना ना सिर्फ कठिन हो जाएगा वरन् वो लगभग नगण्य या असम्भव हो जाएगा।
विचार थोड़ा अटपटा है,आज की परिस्थिति में कोई नहीं स्वीकारेगा, फिर भी आदर्श परिस्थितियों को दिमाग मे रखते हुए मेरे इस विचार पर खुले मन से विचार करके देखें तथा अपने आप से प्रश्न करें कि ——
'यदि ऐसा हो जाए,तो क्या समाज में जातिवादी व सम्प्रदायवादी ताकते कमजोर होंगी या नहीं होंगी ?
कमी कितनी आएगी,जवाब इसका नहीं ढूंढना है,ये तो भविष्य बताएगा; लेकिन कमी आएगी या नहीं ? आपको सिर्फ इस प्रश्न का उत्तर खोजना है।
आपके विचारों व सुझावों का स्वागत रहेगा।
यह विचार बेहद महत्वपूर्ण है, सर्वसमाज के नागरिक इसकी मांग को लेकर आंदोलन करें , केन्द्र सरकार इसे लागू करें वैसे भी जब हर बात में 'मोदी है तो मुनकिन है' तो इस बात में आखिर क्या नामुंकिन है ?
और यदि मोदी जी व सर्वसमाज के लोग ऐसा ना कर सके तो,हमारा निवेदन है कि वो कम से कम जातिवाद व सम्प्रदायवाद का दिखावटी विरोध छोड़ दें तथा उक्त मामलों को नागरिकों की निजी पसंद—नापसंद के रूप में उस सीमा तक सहज स्वीकृति दें जिस सीमा तक वो किसी अन्य के अधिकारों या विकास में बाधक ना बन रहे हो ।
हमें नफ़रती लोगों की फिदरत को अच्छी तरह से समझना होगा ।
मुँह से राम नाम के उच्चारण के साथ—साथ, हमें नफरतबाजों द्वारा बगल में छुपाई गई छुरी को ना सिर्फ देखना होगा वरन उसे पहचाना भी होगा और उस छुरी को उनसे छीनना भी होगा।
जय हिंद!जय भारत! जय जगत!
शुभेच्छु!
अनिल यादव
सम्पादक,बैस्ट रिपोर्टर' न्यूज।
संस्थापक सदस्य,सतपक्ष पत्रकार मंच।
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