चुनाव प्रणाली में मामूली प​रिवर्तन फूंक सकता है लोकतंत्र में जान


 भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया गया है। लोकतंत्र का अर्थ होता है एक ऐसा तंत्र , एक ऐसी व्यवस्था ​जिसमें सर्वाच्च सत्ता अर्थात् ​निर्णय लेने की अंतिम क्ति,अंतिम धिकार जनता के पास होता हो, ​जिसमें जनता के हित को सदैव सर्वोपरी रखा जाता हो तथा ​जिसमें जन सहभागिता का तत्व निवार्य रूप से मौजूद हो। स्पष्ट है ​किसी भी तंत्र के लोकतांत्रिक कहलाने के ​लिए उस व्यवस्था में तीन तत्वों का होना अपरिहार्य है- 1.लोक सम्प्रभुता,2.लोक-​हित और 3.लोक सहभागिता। दि हम लोकतंत्र के इन तीनों अपरिहार्य तत्वों की कसौटी पर भारत में प्रचलित वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था को परखें तो हम पायेंगें ​कि भारत ​सिर्फ घोषित रूप से लोकतांत्रिक देश है वास्तव में नहीं। वास्तव में भारतलोकतंत्र के उक्त तीनों अपरिहार्य तत्वों में से  ​किसी एक पर भी पूरी तरह से खरा नहीं उतरता है।

 

उदाहरणार्थ लोकतंत्र में सम्प्रभुता अर्थात् ​निर्णय लेने की अंतिम क्तिजनता या मतदाताओं के पास होती है परन्तु ज़रा सोचें ​कि क्या भारतीय रिपेक्ष में यह सत्य हैनहीं ! ​बिलकुल नहीं ! जनता के पास ​निर्णय लेने की अंतिम सत्ता ​सिर्फ सैद्धांतिक रूप से मौजूद है वास्तविक रूप से नहीं क्योंकि मौजूदा व्यवस्था में जनता तो ​सिर्फ असंगठित मतदाताओं की भीड़ मात्र बनकर रह गई है जोकि चुनावी मौसम में आकाशीय ​बिजली की तरह अचानक प्रकट होकर चमकने वाले नेतारूपी स्वार्थी ठगों को उनके वंशबलजातिबल,धनबल,भुजबल  झूठे चुनावी वादों से प्रभावित होकर अपनी अंतिम सत्ता दे बैठती और ठगी का पता चलने पर अगले चुनाव तक ठगों को सबक ​सिखाने का मानस बनाती रहती है और जब ​फिर वह अवसर आता है तो जनता ​फिर एक नया ठग चुन लेती है इसी तरह ​सिलसिला चलता रहता है।

 

दि हम बात करें लोकतंत्र के दूसरे अपरिहार्य तत्व ‘लोक-​हित’ कीतो यह तत्व भी भारत की वर्तमान व्यवस्था में ​सिर्फ सैद्धांतिक स्तर पर ही ​दिखाई देता है वास्तव में वर्तमान व्यवस्था में लोकहित सम्भव ही नहीं है क्योकि यह बेहद साधारण सी बात है ​किसी भी व्यवस्था में लोक-​हित  तभी सम्भव हो सकता है जब उस व्यवस्था पर एक प्रभावी ‘लोक-​नियंत्रण’ मौजूद हो।हमारी वर्तमान चुनाव प्रणाली कुछ इस प्रकार की है भारतीय लोकतंत्र में लोक के पास लोक-​हित के ​लिए जरूरी तत्व ‘लोक-​नियंत्रण’ का कोई कारगर साधन उपलब्ध नहीं है  मतदान के बाद मतदाता की सत्ता अगले चुनाव तक ​निरंकुश रूप से जनप्रतिनिधि के पास बंदी हो जाती है। मतदाता चाह कर भी जनप्रतिधि पर दबाब डालने में असमर्थ हो जाते हैंवे जनप्रतिनिधि को भला-बुरा कह सकते हैं उसे अगले चुनाव में हरा भी सकते हैं ,पर तब तक उन्हें  ​सिर्फ उस ठग जनप्रतिनिधि को झेलना होगा वरन् इस प्रश्न से भी रूबरू होना पड़ेगा ​कि उसके स्थान पर अच्छे जनप्रतिनिधि का चुनाव खिर कैसे हो ?  कुछ लोग कह सकते हैं ​कि ‘कौन कहता है ​कि जनप्रतिनिधि लोक-​हित में कार्य नहीं करते’’ परन्तु आप और हम;  सभी लोगयहाँ तक ​कि उक्त दावा करने वाले लोग स्वयं भी यह बात अच्छी तरह से जानते हैं ​कि धिकांश जनप्रतिनिधि लोक-​हित के नाम पर ​किस प्रकार के तथा ​किस तरह से  और ​कितना काम करते हैं तथा उसमें लोक-​हित का भाव ​कितना होता है। लोक-​हित के नाम पर कार्य करने वाले धिकांश जनप्रतिनिधि अपने कर्तव्य को बोझ समझते हुए बेहद उदासीनता से इस प्रकार से ​विकास कार्य हेतु फंड की ​सिफारिश करते हैं जैसे वो जनता पर कोई अहसान कर रहे हों इतना ही नहीं उस फंड से ​कितना  कैसा कार्य हुआ इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं है उन्हें वास्ता है तो ​सिर्फ इस बात से ​कि संबंधित कार्य के ​लिए स्वीकृत धनराशि पर ठेकेदार द्वारा ​दिये जाने वाला कमीशन ​कितना ​मिलेगा?  लोक-​हित कार्यो को कर्तव्य भाव के करने वाले नेताओं का लगभग अकाल हो चुका है।

 

जहाँ तक भारतीय लोक-तंत्र में लोक-सहभागिता के तत्व का प्रश्न है। भारत की वर्तमान तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था में ‘लोक-सहभागिता’ का तत्व भी ​सिर्फ सैद्धांतिक रूप से ही मौजूद है। कहने को तो सभी जनप्रतिनिधि स्वयं जनता में से ही चुने जाते हैं परन्तु असलियत में वे धिकांशतसम्पन्न वर्ग अथवा स्थापित वंश का ही प्रतिनिधित्व करते हैं तथा ​सिर्फ उन्हीं की ​हित-साधना में लगे होते हैं।

 

स्पष्ट है ​कि भारत में प्रचलित व्यवस्था को ​सिर्फ सैद्धांतिक स्तर पर ‘लोकतंत्र’ की संज्ञा दी जा सकती है,व्यवहार में यह व्यवस्था लोकतंत्र की मूलभूत कसौटियों पर खरी नहीं उतरती है। परन्तु ऐसा भी नहीं है ​कि वर्तमान ​स्थितियों में रिवर्तन लाना असम्भव हो। हम चरणबद्ध रूप से तिपय सुधारात्मक सुझावों को अपना कर लोकतंत्र को मजबूत कर सकते हैं। इसी क्रम में मैं ‘बैस्ट ​रिपोर्टर’ समाचारपत्र की ओर से सुझाये गये से एक सुझाव की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। हमारा सुझाव है ​कि जनप्रतिनिधि के रूप में उम्मीदवारी के दावेदारों के ​लिए संबंधित क्षेत्र ​विशेष में 5 वर्ष की क्रियता निवार्य की जाये। उम्मीदवारी के सभी दावेदारों का चुनाव आयोग द्वारा निवार्य रूप से पंजीकरण ​किया जाये। चुनाव आयोग द्वारा पंजीकृत सभी दावेदारों  की सूची क्षेत्रवार  ​सिर्फ उनके सम्पूर्ण ​विवरण एवं सम्पर्कसूत्रों हित प्रकाशित  प्रचारित की जाये  वरन् इसमें उम्मीदवारी के दावेदार की दलीय ​विचारधारा का खुलासा ​किया जाए तथा पंजीकरण के बाद 5 वर्ष तक चयनित क्षेत्र में क्रिय रहने के बाद ही ​किसी व्यक्ति को चुनाव लडने की अनुमति दी जाये। इस प्रणाली से देश की जनता को ​निम्न लाभ होगें :

 

1. ऐसा होने पर मतदाता वर्तमान में चुनावों के दौरान ​किये जाने वाले सीमित अवधि के जबरदस्त प्रचार से भ्रमित नहीं हो पायेंगें तथा  ​सिर्फ उम्मीदवारों को शांतिपूर्वक जान पायेंगें वरन् उनकी व्यक्तिगत क्षमताओं  तथा सेवा करने के भाव को भी अच्छी तरह से परख पायेंगें। कुल ​मिलाकर सीमित अवधि में ​दिये जाने वाले प्रभावी प्रलोभन जैसे-घन ​वित​​रित करवानासमर्थकों को शराब ​वितरित करवाना तथा प्रचार के दौरान ​निराधार आश्वासनों देकर जनता को ठगना नामुनकिन  सही परन्तु बेहद ठिन अवश्य को ​वितरण करना रूक जायेगा।

 

2.इस प्रणाली को लागू करने पर  ​सिर्फ  राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता को चुनाव के दौरान पैराशूट लीडरों को ​टिकट ​मिलने की सम्भावनाओं से मुक्ति ​मिलेगी वरन् क्षेत्र की जनता को भी बाहरी उम्मीदवारों को चुनने के ​लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा।

 

इस प्रणाली के लागू होने पर जनता को बड़ी संख्या में जनसेवक उपलब्ध हो पायेंगें जोकि वर्तमान चुनाव प्रणाली में सम्भव नहीं हो पाते हैं क्योंकि वर्तमान प्रणाली में ​निर्वाचित प्रतिनिधि तो काम ​निकलने जाने के चलते जनता से दूर हो जाते हैं तथा हारे हुए उम्मीदवार ​निराशा के चलते अगले चुनाव तक मुँह ​छिपाये रहते हैं। नई प्रणाली लागू होने पर क्षेत्र के प्रत्येक नेता के ​लिए हमेशा जनहित कार्यों में रत रहना होगा।

 

4. इस प्रणाली के लागू करने से राजकीय आय में भी भारी बढ़ोतरी की सम्भाना है क्योंकि उम्मीदवारी का इच्छुक व्यक्ति विष्य में चुनाव लडे या  लड़े परन्तु अपना पंजीकरण अवश्य करवा कर रखेगा ​जिससे राजकीय आय में बढेगी।

 

स्पष्ट है उक्त प्रणाली लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने में मील का पत्थर साबित हो सकती है। लागू करने की दृष्टि से भी इस प्रणाली में शायद ही कोई परेशानी आये। तर्क की कसौटी पर उक्त प्रणाली हमारे समझ कुछ ठोस सवाल उठाती है-

 

1. अक्सर आम चुनाव के दौरान ​टिकट ​वितरण के समय राजनीतिक दलों में कोशिश की जाती है ​कि पार्टी में लम्बे समय से क्रिय व्यक्ति को ही पार्टी ​टिकट ​दिया जाये। जब दलीय स्तर पर ऐसा करना लाभदायक   करना हानिकारक ​सिद्ध होता है तो राष्ट्रीय स्तर पर इस ​नियम में क्या परेशानी है ​कि क्षेत्र में 5 वर्ष से क्रिय पंजीकृत व्यक्ति को चुनाव लडने का हक ​दिया जाये।

 

2. जब ​विभिन्न राजकीय सेवाओं में कर्मचारियों के पदस्थापन हेतु 5 वर्ष की निवार्य ग्रामीण सेवा की शर्त लगाई जा सकती है तो क्यों नहीं ऐसी शर्त जनप्रतिनिधित्व के इच्छुक लोगों पर भी लगाई जाये।

 

3.जब राजकीय अनुदान प्राप्ति के इच्छुक एनजीओ पर एक ​निर्धारित अवधि तक जनहित कार्यो में अपने ​निजी संसाधनों से सेवा की शर्त लगाई जा सकती है तो चुनाव में उम्मीदवारी के ​लिए भी इस प्रकार की शर्त लगाना युक्तिसंगत कहा जा सकता है।

 

4.जब ​पत्रकार के रूप में धिस्वीकरण के ​लिए  भी  एक ​नियमित अवधि तक पूर्णकालिक पत्रकारिता से जुड़ा होना निवार्य है तो उम्मीदवारों के ​लिए एक ​निर्धारित समय तक सेवाकार्य में जुड़ा होना ​किस प्रकार अनुचित ठहराया जा सकता है?

 

अतमेरा अनुरोध है ​कि चुनाव आयोग  केन्द्र  राज्य सरकारें उक्त सुझाव पर गम्भीरतापूर्वक ​विचार करें तथा लोक-​हित में इसे विलम्ब लागू करने हेतु आवश्यक कदम उठायें।

 

निल यादव,सम्पादक,बैस्ट ​रिपोर्टर,मो-9414349467